Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस स्थान पर सारथी की मूर्खता से रथ इधर उधर चले व उलट जावे उसमें किसी की हानि होने पर रथ का स्वामी अशिक्षित सारथी नौकर रखने के कारण दो सौ पण दण्ड देवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (८।२८९-३००) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग - विरोध - (क) यहाँ पर प्रसंग दण्डपारूष्य - प्राणियों पर जानबूझकर शरीर पर आघात करने पर दण्ड देने का है । परन्तु २८९ में चमड़े के बर्तन, लकड़ी तथा मिट्टी के बर्तन और फल - फूलादि नष्ट करने पर दण्ड का विधान है, २९०वें श्लोक में रथादि वाहनों से होने वाले अपराधों का दण्ड - विधान है । २९१ - २९२ श्लोकों में रथादि से अनजाने हानि होने पर दंड का निषेध है । २९३ - २९४ श्लोकों में भी रथादि के योग्य अथवा अयोग्य चालक से दोष होने पर दंड लिखा है, इत्यादि विधान प्र्रस्तुत प्रसंग से विरूद्ध हैं । (ख) २२८ श्लोक में सभी वस्तुओं की हानि का दंड एक साथ कहकर प्रसंग को पूर्ण कर दिया है । इसके पश्चात् २९९ वें श्लोक में कुछ वस्तुओं के नाम लेकर उनकी हानि पर दंड लिखा है । यहां जब सामान्य रूप से ही दंड - विधान करने से इन वस्तुओं पर भी दंड का विधान हो जाता है फिर इनका परिगणन करना अनावश्यक है । और यदि स्पष्ट ही करना था, तो और सभी वस्तुओं की गणना करानी चाहिये । ऐसा न होने से यह श्लोक अनावश्यक एवं अपूर्ण विधान किया है । (ग) और २९९ - ३०० श्लोकों में भी प्रसंग - विरूद्ध वर्णन किया है । क्यों कि इनमें ताड़ना की विधि कही है, दंड - विधान नहीं ।
२. अन्तर्विरोध - (क) २९९ श्लोक में ‘दास’ शब्द का प्रयोग इन श्लोकों को परवर्ती एवं मनु की मान्यता से विरूद्ध सिद्ध करता है । दास - प्रथा का मनु ने कहीं विधान नहीं किया है । शूद्र को मनु ने सेवक माना है और वह भी स्वेच्छा से किसी भी द्विज की सेवा कर सकता है । मनु दास शब्द से शूद्र का कहीं ग्रहण नहीं करते । एतदर्थ मनु के १।९१, ९।३३४ - ३३५ श्लोक द्रष्टव्य हैं । (ख) २९९ श्लोक में स्त्री, पुत्र, भृत्यादि की ताड़ना का विधान किया है । किन्तु यह मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने ४।१६४ में पुत्र व शिष्य को छोड़कर अन्यों की ताड़ना का निषेध किया है । और स्त्रियों को ताड़ना का विधान तो मनु के उन सभी (३।५५-६२, ९।१०, १०१- १०२) श्लोकों से विरूद्ध है, जहां स्त्रियों के सम्मान और समानता देने का विधान किया है ।
३. शैली - विरोध - २९२वें श्लोक में ‘मनुरब्रवीत्’ पदों से स्पष्ट है कि यह श्लोक किसी दूसरे व्यक्ति ने मनु के नाम से बनाया है । क्यों कि मनु अपना नाम लेकर कहीं कुछ नहीं कहते । और दूसरे श्लोक इसी श्लोक से संबद्ध हैं । इस श्लोक के प्रक्षिप्त होने से अन्य श्लोक भी प्रक्षिप्त स्वयं ही हो जाते हैं । अतः प्रसंग विरूद्ध, अन्तर्विरोध तथा शैली - विरोध होने के कारण ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
यदि गाड़ी चलाने वाले के दोष से गाड़ी रास्ते से हट जावे और उससे कुछ नुकसान हो जावे, तो उस हालत में गाड़ी के मालिक को २०० पण जुर्माना करना चाहिए।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यत्र) जहाँ (प्राजकस्य वैगुण्यात्) चलाने वाले की अयोग्यता के कारण (युग्यम्) गाड़ी (अपवर्तते) इधर-उधर हो जाय (हिंसायाम्) और किसी की हिंसा हो जाय (तत्र) वहाँ स्वामी पर दो सौ पण जुर्माना हो।