Manu Smriti
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पाणिं उद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनं अर्हति ।पादेन प्रहरन्कोपात्पादच्छेदनं अर्हति ।।8/280
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
हाथ व लाठी द्वारा मारें तो उसका हाथ कटवाना चाहिये, यदि क्रोधवश पाँव द्वारा मारें तो पाँव कटवाना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सात (८।२७९ - २८५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - (क) मनु ने २८६ - २८८ श्लोकों में सब वर्णों के लिये समभाव से दण्ड - पारूष्य की दण्डव्यवस्था कही है । परन्तु २७९ - २८३ तक श्लोकों में शूद्र के लिये (ब्राह्मण का अपमान करने पर) पक्षपात पूर्ण दण्ड का विधान है । यदि इसे सत्य माना जाये, तो दूसरे वर्णों के लिये भी पृथक् विधान अवश्य करना चाहिये था । किन्तु वैसा न होने से स्पष्ट है कि ये श्लोक शूद्र के प्रति पक्षपात पूर्ण ढंग से लिखे गये हैं । (ख) और २८५ वें श्लोक में वृक्षादि के नष्ट करने पर दण्ड का विधान किया है, जो कि दण्डपारूष्य प्रकरण से भिन्न होने के कारण असंगत ही है । २. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में वर्णित दण्ड - व्यवस्था मनु की मान्यता से विरूद्ध है । एतदर्थ ८।२६७ - २७२ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । ३. शैली - विरोध - २७९वें श्लोक में ‘मनोरनुशासनम्’ पदों से स्पष्ट है कि ये श्लोक किसी दूसरे ने ही मनु के नाम से बनाये हैं । और इन श्लोकों की शैली मनु की भांति गम्भीर, न्याययुक्त न होकर पक्षपातपूर्ण, दुराग्रह एवं घृणां के भावों से पूर्ण हैं । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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