Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इसी प्रकार वैश्व वा शूद्र अपनी स्वाजाति में अपशब्द व कठोर भाषण करें तो जीभ में छेद करने के अतिरिक्त शेष सब दण्ड प्रयोग करना यह शास्त्राज्ञा है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (८।२७६ - २७७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में विहित दण्डव्यवस्था मनु की मान्यता से विरूद्ध है । इस विषय में ८।२६७-२७२ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है ।
२. अवान्तरविरोध - इन प्रक्षिप्त श्लोकों की दण्ड - व्यवस्था में परस्पर भी विरोध है । २७२ श्लोक में शूद्र की जीभ काटने का विधान किया है, २७७ में जीभ काटने का निषेध किया है । २६८ श्लोक में वैश्य पर पच्चीस पण और शूद्र पर बारह पण दण्ड लिखा है और यहां (२७७ में) वैश्य पर प्रथम साहस और शूद्र पर मध्यम साहस दण्ड का विधान है । इसी प्रकार ब्राह्मण व क्षत्रिय के दण्डों में भी अन्तर है । इस परस्पर विरोध से प्रतीत होता है कि इन श्लोकों के प्रक्षेपक भी भिन्न - भिन्न हैं ।