Manu Smriti
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धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणां अस्य कुर्वतः ।तप्तं आसेचयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।।8/272
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो अहंकार वश ब्राह्मणों को धर्म का उपदेश करे, राजा उसके मुख और कान में तप्त (गरम) डलवावे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये छः (८।२६७ - २७२) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. अन्तर्विरोध - (क) मनु ने इस धर्मशास्त्र में दण्ड की व्यवस्था कहीं भी भेदभावपूर्ण अथवा ईष्र्या, द्वेष भावना से नहीं की है । मनु तो सर्वत्र निर्लिप्त एवं समभाव से सभी प्रजाजनों के लिये यथायोग्य, न्याययुक्त दण्ड का विधान करते हैं । एतदर्थ ९।३०७, ३११, ७।२, १६ श्लोक द्रष्टव्य हैं । और जो समाज में समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति होते हैं , यदि वे स्वयं दोष करते हैं, तो उनके लिये अन्य मनुष्यों की अपेक्षा मनु ने अधिक दण्ड का विधान किया है । एतदर्थ ८।३३५ - ३३८ श्लोक द्रष्टव्य हैं । परन्तु इन (८।२६७ - २६८) श्लोकों में वर्णानुक्रम से न्यूनाधिक दण्ड का विधान उक्त सभी व्यवस्थाओं से विरूद्ध है और इस प्रसंग में भी २७३ - २७५ श्लोकों में सभी वर्णों के लिये समान दण्ड - व्यवस्था का विधान है । अतः इन व्यवस्थाओं से विरूद्ध होने के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । (ख) और २७०वें श्लोक में शूद्र को ‘जघन्य - प्रभवः’ कहने से स्पष्ट है कि इन श्लोकों के रचयिता जन्मना वर्णव्यवस्था को मानते हैं । एतदर्थ १। ३२ - १०१ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । २. शैली - विरोध -इन सभी श्लोकों में और विशेषरूप से २७० - २७२ श्लोकों में शूद्र के प्रति घृणात्मक भाव, क्रूरतापूर्ण दण्ड एवं आक्रोश, पक्षपातपूर्ण दुराग्रह वश किया गया है । मनु की दृष्टि में शूद्र भी पवित्र है, उसके प्रति मनु ने ऐसी हीनभावना कहीं भी प्रकट नहीं की है । जिस समय जन्मना वर्णव्यवस्था प्रचलित हो गई, उस समय में किसी ने इन श्लोकों का प्रक्षेप किया है । अतः ये श्लोक परवर्ती होने से मनुप्रोक्त नहीं है ।
 
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