Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सब दण्ड कोमल, शुद्ध, छिद्र-रहित (बिना छेद का) और सौम्य दर्शन (देखने में सुन्दर) हों, भद्दे (कुरूप) और अग्नि से जले के दाग वाले न हों।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
ते तु सर्वे वे सब दण्ड ऋजवः सीधे अव्रणाः बिना गाँठ वाले सौम्यदर्शनाः देखने में प्रिय लगने वाले नृणां अनुद्वेगकराः मनुष्यों को बुरे या डरावने न लगने वाले सत्वचः छालसहित और अनग्निदूषिताः बिना जले - झुलसे स्युः होने चाहिये ।
टिप्पणी :
ब्राह्मण के बालक को खड़ा रख के भूमि से ललाट के केशों तक पलाश वा बिल्ववृक्ष का, क्षत्रिय को वट वा खदिर का ललाट भू्र तक, वैश्य को पीलू वा गूलर वृक्ष का नासिका के अग्रभाग तक दंड प्रमाण और वे दंड चिकने, सूधे हों, अग्नि में जले, टेढ़े कीड़ों के खाये हुये नहीं हों ।’’
(सं० वि० वेदा० सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ये सब दण्ड सीधे, चिकने या कोड़ा न लगे, देखने में सुन्दर, टेढ़े मेढ़े भद्दे आकार से रहित (जिससे दर्शकजनों को उद्विग्न करने वाले न हों) वल्कल वाले और आग से न जले हुए हों।