Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् ।तेषां निष्ठा तु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे ।।8/227
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यथाविधि पाणिग्रहण मन्त्रों द्वारा वर वधू में जो प्रतिज्ञायें होती हैं वही विवाह का ठीक ठीक लक्षण है सातवाँ भाँवर जो पड़ता है उसी द्वारा विवाह की पूर्णता होती है। तद्नन्तर कन्या उस मनुष्य की पत्नी हो जाती है इससे पूर्व नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।२२४ - २२७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध – २२२ वें श्लोक से वस्तुओं के क्रय - विक्रयसम्बन्धी विवादों का प्रसंग प्रारम्भ हुआ है । इस प्रसंग में कन्या - दान का प्रसंग चलाना असंगत है । और पूर्वापर श्लोकों में (२२३ तथा २२८ में) वस्तुओं के क्रय - विक्रय से सम्बद्ध बातें होने से एक क्रमबद्ध वर्णन है । किन्तु ये श्लोक उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । २. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों के रचयिता की मान्यता कन्या को भी विक्रय की वस्तु के समान मानने की है । किन्तु यह मनु से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने आठ प्रकार के विवाहों में प्रथम चार ही ठीक माने हैं । और उनमें शुल्क लेने देने का (३।२०, २९- ३४, ३९-४१, ५१- ५४ श्लोकों में) मनु ने स्पष्ट निषेध किया है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा अन्तर्विरोध के कारण प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
’पाणि-ग्रहण‘ अर्थात् विवाह सम्बन्धी मन्त्र विवाह के नियत चिह्न हैं। विद्वानों को चाहिये कि सप्तवदी होने पर उनको पूरा समझें।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS