Manu Smriti
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पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः ।नाकन्यासु क्व चिन्नॄणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः ।।8/226
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पाणिग्रहण सम्बन्धी वैदिक मन्त्रों का उपयोग निर्दोषी (विशुद्ध) कन्याओं के विषय में ही करना चाहिये। अकन्या (दोष युक्त कन्या) के विषय में कहीं भी नहीं उपयोग किये गये। क्योंकि वैदिक संस्कारों में जो प्रतिज्ञा की जाती है वह अटल होती है और दोषयुक्त कन्याओं से प्रतिज्ञा निबाहना असंभव है क्योंकि उनकी धर्मक्रिया लुप्त हो जाती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।२२४ - २२७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध – २२२ वें श्लोक से वस्तुओं के क्रय - विक्रयसम्बन्धी विवादों का प्रसंग प्रारम्भ हुआ है । इस प्रसंग में कन्या - दान का प्रसंग चलाना असंगत है । और पूर्वापर श्लोकों में (२२३ तथा २२८ में) वस्तुओं के क्रय - विक्रय से सम्बद्ध बातें होने से एक क्रमबद्ध वर्णन है । किन्तु ये श्लोक उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । २. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों के रचयिता की मान्यता कन्या को भी विक्रय की वस्तु के समान मानने की है । किन्तु यह मनु से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने आठ प्रकार के विवाहों में प्रथम चार ही ठीक माने हैं । और उनमें शुल्क लेने देने का (३।२०, २९- ३४, ३९-४१, ५१- ५४ श्लोकों में) मनु ने स्पष्ट निषेध किया है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा अन्तर्विरोध के कारण प्रक्षिप्त हैं ।
 
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