Manu Smriti
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अकन्येति तु यः कन्यां ब्रूयाद्द्वेषेण मानवः ।स शतं प्राप्नुयाद्दण्डं तस्या दोषं अदर्शयन् ।।8/225
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो निर्दोषी कन्या को द्वेष से दोष लगावे और वह उस कन्या के उस लगाये हुये दोष को सिद्ध न कर पावे। तो वह पुरुष सौ पण दण्ड पाने योग्य है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।२२४ - २२७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध – २२२ वें श्लोक से वस्तुओं के क्रय - विक्रयसम्बन्धी विवादों का प्रसंग प्रारम्भ हुआ है । इस प्रसंग में कन्या - दान का प्रसंग चलाना असंगत है । और पूर्वापर श्लोकों में (२२३ तथा २२८ में) वस्तुओं के क्रय - विक्रय से सम्बद्ध बातें होने से एक क्रमबद्ध वर्णन है । किन्तु ये श्लोक उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । २. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों के रचयिता की मान्यता कन्या को भी विक्रय की वस्तु के समान मानने की है । किन्तु यह मनु से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने आठ प्रकार के विवाहों में प्रथम चार ही ठीक माने हैं । और उनमें शुल्क लेने देने का (३।२०, २९- ३४, ३९-४१, ५१- ५४ श्लोकों में) मनु ने स्पष्ट निषेध किया है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा अन्तर्विरोध के कारण प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो मनुष्य द्वेष से कन्या को अकन्या बतावे, उस पर सौ पण जुर्माना हो, यदि वह कन्या के दोष को सिद्ध न कर सके।
 
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