Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
यस्तु दोषवतीं कन्यां अनाख्याय प्रयच्छति ।तस्य कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान् ।।8/224
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य दोषयुक्त कन्या का दोष न कह कर वर को कन्या दान दे देवे। तो वह छयानवें पण दण्डस्वरूप देवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।२२४ - २२७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध – २२२ वें श्लोक से वस्तुओं के क्रय - विक्रयसम्बन्धी विवादों का प्रसंग प्रारम्भ हुआ है । इस प्रसंग में कन्या - दान का प्रसंग चलाना असंगत है । और पूर्वापर श्लोकों में (२२३ तथा २२८ में) वस्तुओं के क्रय - विक्रय से सम्बद्ध बातें होने से एक क्रमबद्ध वर्णन है । किन्तु ये श्लोक उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । २. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों के रचयिता की मान्यता कन्या को भी विक्रय की वस्तु के समान मानने की है । किन्तु यह मनु से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने आठ प्रकार के विवाहों में प्रथम चार ही ठीक माने हैं । और उनमें शुल्क लेने देने का (३।२०, २९- ३४, ३९-४१, ५१- ५४ श्लोकों में) मनु ने स्पष्ट निषेध किया है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा अन्तर्विरोध के कारण प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जे दोषवती कन्या को बिना बताये विवाह दे, उस पर राजा स्वयं छयानवे पण जुर्माना करे।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS