Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
चार ऋत्विस् मुरय हैं। अर्थात् होता, उध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गात यह चारों सब दक्षिणा का अर्थ भाग पावें और मित्रावर्ण प्रन्स्तोता, ब्रह्माछन्सी प्रस्तोता यह चारों मुरय ऋत्विगों का आधा भाग पावें। इच्छायाक्य नथिशा, अग्निबीधर, प्रतिहन्त यह चारों मुरय ऋत्विगी का तृतीयास पावें। प्रावस्त, अयन्ता, पीता, अब्रह्मण्य यह चारों मुरय ऋत्विगों का चतुर्थांश पावें। इस स्थान पर सब को उपरोक्त विधि से दक्षिणा मिले। अतः सब का आधा यद्यपि पचास है तो भी 48 ही लेना, तब प्रथम कही हुई संख्या पूर्ण होगी।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
सब साझीदारों में जो मुख्य हों, वे आधी पत्ती के मालिक हों। दूसरे नंबर के हिस्सेदार उनसे आधा भाग लें। तीसरे दर्जे के हिस्सेदार उन मुख्यों से एक तिहाई लें। और, चौथे दर्जे के हिस्सेदार अवशिष्ट चौथा भाग लें। अर्थात्, इस प्रकार क्रमशः उन चारों प्रकार के हिस्सेदारों के चार विभाग होने चाहिऐं।