Manu Smriti
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दक्षिणासु च दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् ।कृत्स्नं एव लभेतांशं अन्येनैव च कारयेत् ।।8/207
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये छः (८।२०४ - २०९) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंगविरोध - (क) १९७ वें श्लोक से ‘दूसरे की वस्तु को बेचने’ के विवाद पर दण्ड का प्रसंग चला है इसी प्रसंग में २०४ - २०५ श्लोकों में विवाह में कन्या को बदलने का कथन करना अप्रासंगिक है । (ख) और यहां पूर्वापर श्लोकों में साझा व्यापार में उत्पन्न विवादों के निर्णय का प्रसंग चल रहा है । इस प्रसंग में यज्ञ के अवसर पर ऋत्विक् आदि की दक्षिणादि के विवाद का प्रसंग अथवा दक्षिणा का वितरण अथवा यज्ञ में कौन क्या वस्तु लेवे, इस प्रकार का वर्णन (२०६ - २०९ में) प्रसंग विरूद्ध हैं । २. अन्तर्विरोध - और २०४ श्लोक में ‘एकशुल्केन’ पद में यह ध्वनित हो रहा है कि इनमें कन्या को विक्रय की वस्तु माना गया है । किन्तु यह मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने (३।५१ - ५४ में) बिना किसी शुल्क के विवादों का विधान किया है । इससे यह भी यह स्पष्ट है कि ये श्लोक बहुत ही परवर्ती हैं । जिस समय पैसे लेकर कन्या देने की प्रथा प्रचलित हुई उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप किया गया है । ३. परस्पर - विरोध - २०८ वें श्लोक में मुख्य व्यक्ति को समस्त दक्षिणा देने को कहा है और वह दूसरों को वितरण कर देवे । परन्तु २०९ वें में रथ, घोड़े आदि लेने की व्यवस्था पूर्वोक्त विधान के विरूद्ध है । और यह दक्षिणा का प्रकार भी अनुचित है । यज्ञ करने वाला ब्राह्मण घोड़े आदि का क्या करेगा ? उसे ऐसी दक्षिणा से क्या लाभ है ? इस प्रकार इन श्लोकों के प्रक्षेपक ने परस्परविरोधी एवं अयुक्तियुक्त बातें लिखी हैं, ये मनुप्रोक्त नहीं हो सकतीं । ४. शैली - विरोध – २०४ वें श्लोक में ‘इत्यब्रवीत् मनुः’ इस वाक्य से स्पष्ट है कि ये श्लोक किसी अन्य व्यक्ति ने मनु के नाम से बनाकर प्रक्षेप किये हैं । मनु अपना नाम लेकर कहीं कुछ नहीं करते । अतः प्रसंगविरोध, अन्तर्विरोध, परस्पर - विरोध तथा शैली - विरोध के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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