Manu Smriti
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निक्षेपस्यापहर्तारं तत्समं दापयेद्दमम् ।तथोपनिधिहर्तारं अविशेषेण पार्थिवः ।।8/192
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गुप्त (अज्ञात, गोपनीय) तथा मुद्रांकित (मोहर किये हुए) इन दोनों प्रकार की थातियों को जो नहीं देता है। उसको उन दोनों प्रकार की थाती के धन के तुल्य ही अर्थ दण्ड स्वरूप लेवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।१९२ वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं - १. पुनरूक्तिदोष - १९१ वें श्लोक में धरोहर को न लौटाने वाले को धरोहर के समान अर्थ - दण्ड अथवा चोर के समान दण्ड देने का विधान किया गया है । उपनिधि का विधान भी उसी के अन्तर्गत हो गया है । १९२वें श्लोक में फिर उसी बात को कहना पुनरूक्ति मात्र ही है । और पुनरूक्त बातें मनुप्रोक्त नहीं हो सकतीं अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जिस ने जिस परिमाण से जितना धन धरोहर रूप में सब के सामने रखा हो, उन साक्षियों की साक्षी पर उस धरोहर को उतना ही जानना चाहिए। यदि धरोहर रखने वाला उससे विपरीत अधिक बतलावे, तो वह दण्डनीय समझा जावे।
 
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