Manu Smriti
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निक्षेपस्यापहर्तारं अनिक्षेप्तारं एव च ।सर्वैरुपायैरन्विच्छेच्छपथैश्चैव वैदिकैः ।।8/190
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
थाती का अपहरण (खयानत) करने वाला वा थाती सौंपने का मिथ्या वादी इनकी (1) वेदविधि द्वारा परीक्षा लेकर सत्यासत्य को निर्णर करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।१९० वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है - अन्तर्विरोध - १. इस श्लोक में कहा है कि धरोहर न देने आदि विवाद का निर्णय वैदिक शपथों से और सामादि उपायों से करे । किन्तु ८।५२, ५७, ८।४४, ४५ श्लोकों से स्पष्ट है कि इस प्रकार के विवादों का निर्णय लिखा - पढ़ी एवं साक्षियों से करना चाहिए । अतः इस श्लोक की बातों का उनसे विरोध है । २. मनु ने शपथ को कहीं भी सत्य और न्याय का आधार नहीं माना है । क्यों कि अपने दुष्कर्म को छिपाने के लिये शपथ लेना अत्यन्त सरल उपाय है । और साक्षी लेना अथवा ८।२५, २६ के अनुसार आकृति आदि से आन्तरिक मन को जाननादि उपायों का कथन निरर्थक हो जाता है और सच्चे व झूठे मनु ने कहीं नहीं दिखाई । अतः मनु के समस्त विधान से विपरीत शपथों के कथन एवं परस्पर विरोध के कारण यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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