Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इसके पश्चात् तीनों वर्ण उसके अधिकारी नहीं रहते। तब उनका नाम व्रात्य कहलाता है। और आय्र्य लोग उनको विगर्हित (बुरा) कहते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. यथाकालं असंस्कृताः निर्धारित समय पर संस्कार न होने पर अतः ऊर्ध्वम् इस (२।१३) अवस्था के बीतने के बाद एते त्रयः + अपि ये तीनों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही सावित्रीपतिताः सावित्री - यज्ञोपवीत से पतित हुए आर्यविगर्हिताः आर्य - श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा निन्दित व्रात्याः भवन्ति ‘व्रात्या’ व्रत से पतित हो जाते हैं ।
टिप्पणी :
‘‘अत ऊध्र्वं पतितसावित्रीका भवन्ति ।।६।। (आश्व० गृ० सू०)
यदि पूर्वोक्त काल में इनका यज्ञोपवीत न हो तो वे पतित मानें जावें ।’’
(सं० वि० उपनयन संस्कार)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इसके उपरान्त ये तीनों, यथासमय उपनयन संस्कार से संस्कृत न होने के कारण, यज्ञोपवीत के अनाधिकारी हो जाते हैं और वे आर्यों से निन्दित हुए-हुए व्रात्य अर्थात् व्रतच्युत पतित शूद्र कहलाते हैं।