Manu Smriti
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तस्माद्यम इव स्वामी स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये ।वर्तेत याम्यया वृत्त्या जितक्रोधो जितेन्द्रियः ।।8/173
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अतएव प्रियय वा अप्रि अभिलाषाओं के ध्यान को परित्याग करके अक्रोधी तथा जितेन्द्रिय होकर रहे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दस (८।१६८ - १७७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - पूर्वापर श्लोकों से स्पष्ट है कि यहां ऋण देने लेने का प्रसंग है । परन्तु १६९ - १७५ तक श्लोकों में राजा के कत्र्तव्यों का उल्लेख है, जो यहाँ प्रसंग - विरूद्ध है । और ऋण लेने - देने का प्रसंग ८।१६७ तक पूर्ण हो गया है । इसके बाद १७६ - १७७ श्लोकों में पुनः ऋण लेने देने का प्रसंग चलाना प्रसंग विरूद्ध है । २. अन्तर्विरोध - १७७ वें श्लोक में महाजन द्वारा ऋण के बदले में काम कराने की व्यवस्था लिखी है । यह मनु की व्यवस्था से विरूद्ध है । क्यों कि यहाँ राजधर्मों के वर्णन में ऋण - सम्बन्धी विवादों में राजा कैसे निर्णय करे, यह प्रसंग है । उस प्रसंग में महाजन द्वारा स्वयं निर्णय लेने की बात का कथन उचित नहीं है । विवाद होने पर न्याय - सभा का निर्णय होना चाहिए न कि स्वेच्छा से । मनु ने (८।१९६ में) इस बात को स्पष्ट किया है । ३. शैली - विरोध - १६८ वें श्लोक में ‘मतुरब्रवीत्’ इस वाक्य से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं है, प्रत्युत मनु के नाम से किसी अन्य ने बनाकर मिलाये हैं । और यह आवश्यक नहीं है कि जो इस जन्म में राजा है, वह दूसरे जन्म में भी राजा ही बन सके । अतः १७१ - १७२ श्लोकों में परजन्म में भी राजा के बढ़ने की बात युक्तियुक्त नहीं है । अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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