Manu Smriti
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ग्रहीता यदि नष्टः स्यात्कुटुम्बार्थे कृतो व्ययः ।दातव्यं बान्धवैस्तत्स्यात्प्रविभक्तैरपि स्वतः ।।8/166

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऋणी का ऋण लेकर सन्तान के पालन पोषण करने में व्यय करने के पश्चात् मृत्यु हो गई तो उस ऋण को उसके भ्राता पुत्र आदि सम्बन्धियों को परिशोध करना चाहिये, क्योंकि वह धन उचित कार्य हेतु लिया गया है।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इकट्ठे रहने वाले कुटुम्ब के ख़र्च के लिए ऋण लेने वाला यदि मर जावे, तो विभक्त हो जाने पर भी उन सब बान्धवों को अपने अपने धन से वह ऋण चुकाना चाहिए।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
परिवार के लिये खर्च करने के लिये यदि ऋण लेने वाला मर जाय तो उसके रिश्तेदार (विभक्तैः अपि) चाहे अलग-अलग भी हो गये हों तो भी अपने धन में से उस ऋण को चुकावें।
 
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