Manu Smriti
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चक्रवृद्धिं समारूढो देशकालव्यवस्थितः ।अतिक्रामन्देशकालौ न तत्फलं अवाप्नुयात् ।।8/156

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य सारथि का काम करता है और अपनी प्रतिज्ञा पालन नहीं करता है तो वह उसका सारा फल नहीं पा सकता जैसे यहाँ से बनारस तक बोझा पहुँचाने का इतना धन लेंगे वा एक मांस बोझा ले जाने का इतना धन लेवेंगे ऐसा कहकर कार्यारम्भ करे और मध्य ही में कार्य त्याग दे तो वह अपने परिश्रम फल के सारे धन को नहीं पा सकेगा।
टिप्पणी :
श्लोक 156 में ऐसे मनुष्यों के हेतु जो प्रतिज्ञानुसार कार्य पूरा न करें उनका सारा परिश्रम फल के न देने की आज्ञा इस हेतु दी है जिससे कोई मनुष्य जान बूझकर प्रतिज्ञा भंग करके परिश्रम फल प्राप्ति न करे जिससे संसार में अविश्वास और अधर्म प्रचारित हो सकता है।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इस प्रकार पुनः सूद की दर निश्चित करने वाला मनुष्य देश और काल से व्यवस्थित होवे। क्योंकि जो देश-काल की परवाह नहीं करता, उसे वह सूद नहीं मिलता।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
चक्रवुद्धि को लेने वाला देश और काल की व्यवस्था कर ले । यदि देश और काल का उल्लधन करे तो उस को नही पा सकता ।
 
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