Manu Smriti
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ऋणं दातुं अशक्तो यः कर्तुं इच्छेत्पुनः क्रियाम् ।स दत्त्वा निर्जितां वृद्धिं करणं परिवर्तयेत् ।।8/154

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो कर्ज़दार ऋण चुकाने में अशक्त हो, और पुनः ठहराव करने की इच्छा करे, तो वह चढ़े हुए सूद को देकर कागज़ बदल दे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जे ऋण चुकाने में असमर्थ है और क्रिया अर्थात ऋण को फिर जारी रखना चाहता है। वह (निजितां वृद्धिम ) उस समय तक के ब्याज को देकर (करणम) तमम्सुक बदना लेवे।
 
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