Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।१५२ वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
१. प्रसंग विरोध - मूलधन पर ब्याज दर का निर्धारण १४० श्लोक में किया जा चुका है । उसके बाद धरोहर पर ब्याज दर का प्रसंग चल रहा है । दूसरा प्रसंग प्रारम्भ होने पर पुनः पहला प्रसंग (मूलधन का ब्याज दर का) प्रारम्भ करना प्रसंग विरूद्ध है ।
२. अन्तर्विरोध - ८।१४० वें श्लोक में अधिक से अधिक सवा रूपया सैकड़ा ब्याज की दर निश्चित की है । किन्तु इस श्लोक में पांच्चरूपये सैकड़ा तक की छूट दी है । यह विधान पहले से विरूद्ध है और प्रसंग विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(कुतानुसारान ) ठहरे हुये से (अधि व्यतिरिक्ता) अधिक ब्याज (न सिदष्यति ) ठीक नही है। (कुपोदपथम आहुतम) इसी को लेन देन कहते है। (पुचकम शतम अर्हति ) यह पांच रूपये सैकडे तक हो सकता है ।