Manu Smriti
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यः स्वामिनाननुज्ञातं आधिं भूङ्क्तेऽविचक्षणः ।तेनार्धवृद्धिर्मोक्तव्या तस्य भोगस्य निष्कृतिः ।।8/150
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।१४७ - १५०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में कही व्यवस्थाओं का मनु की दूसरी व्यवस्थाओं से विरोध है । जैसे - १. १४९ वें श्लोकं में स्त्रियों को भी धरोहर की भांति मानकर भोग की वस्तु माना है । यह मान्यता मनु से विरूद्ध है । मनु तो (८।२७ - ३०, १४३, १४६) श्लोकों के अनुसार जड़ वस्तु, धन तथा पशुओं को ही धरोहर की वस्तु मानते हैं । स्त्रियों के विषय में यह एक हीन भावना पौराणिक युग की देन है और पत्नी की पतिधर्मी मानकर एक व्यक्ति के संग रहने का ही उपदेश दिया है, परन्तु यहां १४९ वें श्लोक में अनेक व्यक्तियों से भी स्त्री को भोग्य माना है । २. और १४३ - १४६ श्लोकों में जो विधान लिखे हैं, उनसे भिन्न तथा विरूद्ध इन श्लोकों में कहे हैं जैसे - १४७ - १४८ श्लोकों में किसी दशा में धरोहर पर से स्वामी का अधिकार नष्ट होना माना है । जब कि १४३ - १४६ श्लोकों में धरोहर पर से स्वामी का अधिकार कभी नष्ट न होना मना है । और १४९ श्लोक में कुछ वस्तुओं का नाम लेकर स्वामी का अधिकार रहना माना है । और इसी प्रकार १४४ श्लोक में धरोहर को भोगने पर उसका ब्याज न लेने और क्षतिपूर्ति करने की व्यवस्था है । परन्तु १५० वें श्लोक में स्वामी की आज्ञा के बिना धरोहर के भोगने पर आधा ब्याज देने की व्यवस्था है । यह एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था मौलिक न होने से मनुप्रोक्त नहीं है ।
 
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