Manu Smriti
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यत्किं चिद्दशवर्षाणि संनिधौ प्रेक्षते धनी ।भुज्यमानं परैस्तूष्णीं न स तल्लब्धुं अर्हति ।।8/147
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उस वस्तु का स्वामी देखता है परन्तु बेचता नहीं है। उस वस्तु का जो कोई दश वर्ष पर्यंत बतले तो उसका स्वामी उस वस्तु को नहीं पा सकता है। इसी प्रकार वर्तमान काल मंं जबर्दस्ती (कब्जा मुखालिफानह) की अवधि है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।१४७ - १५०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में कही व्यवस्थाओं का मनु की दूसरी व्यवस्थाओं से विरोध है । जैसे - १. १४९ वें श्लोकं में स्त्रियों को भी धरोहर की भांति मानकर भोग की वस्तु माना है । यह मान्यता मनु से विरूद्ध है । मनु तो (८।२७ - ३०, १४३, १४६) श्लोकों के अनुसार जड़ वस्तु, धन तथा पशुओं को ही धरोहर की वस्तु मानते हैं । स्त्रियों के विषय में यह एक हीन भावना पौराणिक युग की देन है और पत्नी की पतिधर्मी मानकर एक व्यक्ति के संग रहने का ही उपदेश दिया है, परन्तु यहां १४९ वें श्लोक में अनेक व्यक्तियों से भी स्त्री को भोग्य माना है । २. और १४३ - १४६ श्लोकों में जो विधान लिखे हैं, उनसे भिन्न तथा विरूद्ध इन श्लोकों में कहे हैं जैसे - १४७ - १४८ श्लोकों में किसी दशा में धरोहर पर से स्वामी का अधिकार नष्ट होना माना है । जब कि १४३ - १४६ श्लोकों में धरोहर पर से स्वामी का अधिकार कभी नष्ट न होना मना है । और १४९ श्लोक में कुछ वस्तुओं का नाम लेकर स्वामी का अधिकार रहना माना है । और इसी प्रकार १४४ श्लोक में धरोहर को भोगने पर उसका ब्याज न लेने और क्षतिपूर्ति करने की व्यवस्था है । परन्तु १५० वें श्लोक में स्वामी की आज्ञा के बिना धरोहर के भोगने पर आधा ब्याज देने की व्यवस्था है । यह एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था मौलिक न होने से मनुप्रोक्त नहीं है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यत किचित) जिस किसी चीज को (धनी) स्वामी (दश वर्षाणि) दश वर्ष तक (सत्रिधौ) सामने (परै भुज्यमानुम) दूसरे से भोगी जाती (प्रेक्षते) देखता हो (तृष्णीम) चुपचाप अर्थात कुछ कहे न तो (न सतत लब्धुम अर्हति) वह फिर पाने के योग्य नही है । अर्थात ऐसी दशा में उसका अधिकार जाता रहता हे
 
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