Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पञ्चकं च शतं समम् ।मासस्य वृद्धिं गृह्णीयाद्वर्णानां अनुपूर्वशः ।।8/142
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण से दो प्रति सैंकड़ा, क्षत्रिय से तीन प्रति सैंकड़ा, वैश्य से चार प्रति सैंकड़ा, तथा शूद्र से पाँच रुपया प्रति सैंकड़ा ब्याज लेवें।
टिप्पणी :
मनुजी की ब्याज को कड़ा करने से यह सिद्ध होता है कि लोग ऋण पाश से बचें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (८।१४१ - १४२) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. अन्तर्विरोध - मनु ने ८।१४० श्लोक में सब मनुष्यों के लिये सामान्य - रूप में सवा रूपया सैकड़ा ब्याज लेने की दर निश्चित की है और इन श्लोकों में उस विधान के विरूद्ध दो रूपये से लेकर पांच रूपये सैंकड़ा तक ब्याज का विधान पूर्वोक्त विधान से विरूद्ध है । २. शैली - विरोध - मनु ने मानवमात्र के लिए इस शास्त्र में विधान लिखे हैं किसी के साथ पक्षपात - व्यवस्था मनु को अभिप्रेत नहीं है । परन्तु यहां १४२ वें श्लोक में वर्णों के क्रम से उच्चवर्ण की अपेक्षा निचले वर्ण से अधिक ब्याज की व्यवस्था पक्षपातपूर्ण है । और १४१ श्लोक की ‘सतां धर्ममनुस्मरन्’ इत्यादि भाषा भी मनु की शैली की नहीं है । यह किसी परवत्र्ती ने प्रक्षेप करके ‘सतां धर्मः’ की दुहाई देकर प्रामाणिक करने की चेष्टा की है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ऋण पर वर्णो के कम से दो तीन चार और पाॅच प्रति सैकडा मासिक ब्याज ले सकता है ।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS