Manu Smriti
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ऋणे देये प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतं अर्हति ।अपह्नवे तद्द्विगुणं तन्मनोरनुशासनम् ।।8/139
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।१२९ वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है - १. अन्तर्विरोध - इस श्लोक का दण्डविधान ८।५९ श्लोक से विरूद्ध होने से मनुप्रोक्त नहीं है । क्यों कि उसमें दण्ड की व्यवस्था मिथ्याभाषण करने वाले कर्जदार और कर्जा देने वाला दोनों को दण्ड देने का विधान किया है । इसमें केवल कर्जदार को ही दण्ड लिखा है । २. शैली - विरोध - इस श्लोक के ‘तन्मनोरनुशासनम्’ पदों से स्पष्ट है कि यह श्लोक मनु से भिन्न व्यक्ति का बनाया हुआ है । प्रक्षेपक ने अपने बनाये श्लोक को मनु का नाम देकर प्रामाणिक करना चाहा है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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