Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
प्रथम बाद वाग्दण्ड दे अर्थात् तुमने अच्छा कार्य नहीं किया अब फिर ऐसा न करना। द्वितीय बार झिड़क दे तथा धिक्कार देकर उस कार्य से हटावें, यदि तृतीय बार वैसा ही करें तो अर्थ दण्ड दें। इस पर भी मानें तो कारागार तथा वध (शरीरांग छिन्न करना) का दण्ड देवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
प्रथम वाणी का दण्ड अर्थात् उसकी ‘निन्दा’ दूसरा ‘धिक्’ दण्ड अर्थात् तुझको धिक्कार है, तूने ऐसा बुरा काम क्यों कि तीसरा - उससे धन लेना, और ‘वध’ दण्ड अर्थात् उसको क्रीड़ा या बेंत से मारना वा शिर काट देना ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा को चाहिये कि वह अपराधी को पहले वाणीदण्ड दे, अर्थात् उसे डाँटे। उसके बाद उसे धिक्कारने का दण्ड दे। तदनन्तर, उसे धन-दण्ड अर्थात् जुर्माना करे। और, सब से पीछे उसे पीटना-अंगच्छेदन-फांसी आदि शारीरिक दण्ड दे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
पहले वाग दण्ड दे (बुरा भला कहे ) फिर धिगण्ड दे अर्थात धिकार करे फिर जुर्माना करे फिर शरीर दण्ड (बधदण्ड मे सभी प्रकार के शरीर दण्ड आ जाते हैं )