Manu Smriti
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अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः ।सारापराधो चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् ।।8/126

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इच्छा से क्रमशः अपराध करना, देश (स्थान) काल (समय) अपराध, अपराधी का शरीर, धन सम्पत्ति, सामथ्र्य, बड़ा छोटा अपराध इन सब को देखकर दण्डनीय पुरुषों को दण्ड देना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
‘‘परन्तु जो - जो दण्ड लिखा है और लिखेंगे, जैसे - लोभ से साक्षी देने में पन्द्रह रूपये दश आने दण्ड लिखा है; परन्तु जो अत्यन्त निर्धन हो तो उससे कम, और धनाढय हो तो उससे दूना, तिगुना और चौगुना तक भी ले लेवे अर्थात् जैसा देश, जैसा काल और जैसा पुरूष हो उस का जैसा अपराध हो वैसा ही दण्ड करे ।’’ (स० प्र० षष्ठ समु०)
टिप्पणी :
न्यायकत्र्ता अपराधी का इरादा या बार - बार किये गये अपराध को और सही रूप में देश और काल को जानकर तथा अपराधी की शारीरिक एवं आर्थिक शक्ति और अपराध का स्तर देख - विचार कर दण्डनीय लोगों को दण्ड दे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु, इन सब दण्डों को प्रसङ्ग, देश, काल, अपराधियों के धन-शरीर-सामर्थ्य और अपराध को ठीक-ठीक देखकर उन्हें न्यूनाधिक दण्ड दिया जावे। अर्थात्, जैसा प्रसङ्ग, जैसा देश, जैसा काल और जैसा पुरुष हो, तथा उसका जैसा अपराध हो, तदनुसार वैसा ही उसे न्यूनाधिक दण्ड दिया जावे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अनुबन्ध देश कालौ च तत्वतः परिज्ञाय) अपराध के प्रकार देश काल आदि को ठीक ठीक समक्ष कर (सार अपराधौ च आलोक्य) सामथ्र्य और अपराध को जान कर (दण्डयेषु दण्डम पातयेत ) अपराधी को दण्ड दे ।
 
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