Manu Smriti
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दश स्थानानि दण्डस्य मनुः स्वयंभुवोऽब्रवीत् ।त्रिषु वर्णेषु यानि स्युरक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् ।।8/124
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीनों वर्णों के दण्ड के दश स्थान स्वयम्भू अर्थात् सांकल्पिक सृष्टि के उत्पन्न ऋषि के बेटे मनुजी ने कहे। ब्राह्मण तो शारीरिक दण्ड बिना पाये चला जाये।
टिप्पणी :
स्वयम्भू के अर्थ यह है कि जो बिना माता पिता के उत्पन्न हुआ हो। क्योंकि आदि सृष्टि में ऋषि लोग परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न होते हैं अतएव वह स्वयम्भू कहलाते हैं वेदों के ज्ञान को वही लोग प्रचार करते हैं। तथा धर्मशास्त्र भी वही लोग स्थिर व नियत करते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीन (८।१२३ - १२५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. अन्तर्विरोध - मनु के अनुसार उच्च - उच्च वर्ण को समान दोष का अधिक दण्ड मिलना चाहिये । एतदर्थ ८।३३५ - ३३८ श्लोक द्रष्टव्य हैं । और यह न्याय की दृष्टि से उचित भी है । किन्तु यहां १२३ में झूठी साक्षी देने पर क्षत्रियादि को तो दण्ड देकर देश निकालना और उसी अपराध पर ब्राह्मण को दण्ड की छूट देना मनु की मान्यता से विरूद्ध है । २. शैलीगत - विरोध - १२४वें श्लोक में ‘मनुः स्वायम्भुवः अब्रवीत्’ इस वाक्य से स्पष्ट है कि ये श्लोक मनु से भिन्न किसी व्यक्ति ने मनु के नाम से बनाये हैं । मनु अपना नाम लेकर कहीं कुछ नहीं कहते । और १२३ - १२४ श्लोकों में पक्षपातपूर्ण वर्णन है । मनु की शैली में पक्षपात का दोष नहीं है । क्यों कि इनमें जिस दोष के कारण दूसरे वर्णों को दण्डित करने का विधान है, उसी दोष पर ब्राह्मण को छूट देना पक्षपातपूर्ण है । १२५वां श्लोक १२४ श्लोक से ही सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
धर्म की रक्षा और अधर्म के नियमन के लिए झूठी गवाही देने पर पूर्व मुनियों ने ये उपर्युक्त दण्ड कहे हैं। परन्तु स्वायम्भुव मनु ने तो दण्ड के दस स्थान बतलाए हैं। जोकि उपस्थेन्द्रिय, उदर, जिह्वा, हाथ, पांव, आँख, नाक, कान, धन और शरीर हैं, जिन पर दण्ड दिया जाता है, और जो क्षत्रियादि तीनों वर्णों में प्रयुक्त किये जाते हैं। परन्तु ब्राह्मण को बिना अङ्गछेदन किये देश से बाहर निकाल दिया जाता है।
 
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