Manu Smriti
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यस्य दृश्येत सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः ।रोगोऽग्निर्ज्ञातिमरणं ऋणं दाप्यो दमं च सः ।।8/108
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
न्यायालय से कोई साक्षी अपनी गवाही देकर आवे और सात दिवसों के भीतर रोग, अग्निदाह, जाति सम्बन्धी को मृत्यु इनमें से कोई एक दुःख साक्षी को हो तो वह साक्षी उस ऋण को तथा उसके दशमास को दण्ड स्वरूप देवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (८।९७ - ११६) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं का ही विरोध होने से ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं हैं । जैसे - (क) १०३ श्लोक में कहा है कि कुछ विषयों में झूठ बोलता हुआ भी स्वर्गलोक से नहीं गिरता । यह स्वर्गलोक की कल्पना मिथ्या है । मनु ने स्वर्ग को स्थानविशेष न मानकर सुख का वाची माना है । इस विषय में ४।८७ - ९१ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ख) और १०२ श्लोक में वैश्य और शूद्र के कर्मों के करने वाले व्यक्तियों को भी विप्र - ब्राह्मण माना है, जब कि मनु ने कर्मानुसार व्रणों की व्यवस्था मानी है । वैश्य - शूद्र के कर्मों को करने वाला ब्राह्मण कदापि नहीं हो सकता । इस से इन श्लोकों का परवर्ती होना स्पष्ट है कि ये श्लोक जन्मना वर्णव्यवस्था प्रचलित होने पर मिलाये गये हैं । (ग) मनु ने साक्षी को सत्य बोलने का विधान ८।८० - ८१ में किया है । और ८।११९ - १२२ तक झूठी साक्षी देने वालों का दंड का विधान किया है । परन्तु १०३ - १०६ तक झूठी साक्षी देने का विधान और झूठ बोलने के पाप का प्रायश्चित्त भी लिखा है । यह मनुसम्मत नहीं है । (घ) १०९ - ११६ तक श्लोकों में साक्षियों के अभाव में शपथ लेने का विधान किया है । यह शपथ की व्यवस्था मनु - सम्मत नहीं है । क्यों कि मनु ने साक्षी न मिलने पर (८।१८२ में) गुप्तचरों द्वारा जानकारी प्राप्त करने का विधान किया है । मनु ने साक्षियों के विशेष गुण लिखे हैं । वे ही साक्षी करने चाहिए (८।६३ - ६४) और शपथ तो कोई भी ले सकता है । अतः यह शपथ की व्यवस्था मनुसम्मत नहीं है । २. शैली - विरोध - इन श्लोकों की शैली मनुप्रोक्त नहीं है । जैसे - (क) ११० और ११६ श्लोकों में ऐतिहासिक - शैली से वसिष्ठ, पैजवन, वत्सादि व्यक्तिविशेषों के नामों का उल्लेख है । मनु अपने से परवर्ती व्यक्तियों का उल्लेख कैसे कर सकते थे ? इससे स्पष्ट है कि ये श्लोक परवत्र्ती किसी अन्य व्यक्ति ने मिलाये हैं । (ख) और ११४ - ११६ श्लोकों में अग्नि, जलादि की परीक्षायें हैं । जिसे अग्नि न जला सके और जल में डुबो न सके, उसका शपथ लेना सत्य है । यह कितनी अयुक्तियुक्त तथा सृष्टिनियम के विरूद्ध बात है कि साक्षी सत्य ही बोले, एतदर्थ शपथों का विधान और शपथ सत्य है या नहीं, एतदर्थ अग्नि आदि की परीक्षा कराना । इससे स्पष्ट है कि मिथ्यावादियों के ही सब प्रपंच हैं । मनु साक्षी के लिये ऐसा कथन कदापि नहीं कर सकते, क्यों कि उन्होंने अप्तपुरूषों को ही साक्षी देने का अधिकार दिया है । और यह कितने आश्चर्य की बात है कि इन मिथ्यावादियों ने अग्नि आदि के धर्मों को भी नहीं जाना । अग्नि आदि तो अचेतन हैं, इनमें सत्यासत्य को जानने का सामथ्र्य कहां है ? ऐसे जड़ पदार्थों को भी चेतन मानकर अग्नि आदि की परीक्षा करना मनु - सदृश आप्तपुरूषों का कार्य नहीं है । मनु ने (१।७५ - ७८ में) अग्नि आदि की उत्पत्ति प्रकृति के विकार महतत्व से मानी है । अतः ये प्रकृति के कार्य होने से चेतन - ज्ञान वाले नहीं हैं । अग्नि तो पवित्र - अपवित्र, सत्य व असत्य का भेद न करने के कारण सब को ही जलाती है । (ग) और ११२वें श्लोक में ब्राह्मण की रक्षादि के विषय में शपथ लेने में पाप नहीं है, यह भी पक्षपातपूर्ण कथन है । प्रथम तो शपथ की बात ही मनु - प्रोक्त नहीं है । और ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि की रक्षा का निर्देश न करके केवल ब्राह्मण की बात कहना पक्षपातपूर्ण है । मनु इस प्रकार की ऐतिहासिक, अयुक्तियुक्त, सृष्टि - नियम विरूद्ध तथा पक्षपातवाली बातें कैसे कह सकते हैं ? अतः ये सभी श्लोक परवत्र्ती प्रक्षेप हैं ।
 
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