Manu Smriti
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यस्य विद्वान्हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते ।तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः ।।8/96

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य बोलते समय अपनी आत्मा का हनन नहीं करता तथा उसकी आत्मा में सन्देह व भ्रम उत्पन्न नहीं होता-क्योंकि सन्देह व भ्रम सदैव असत्य भाषण के समय उत्पन्न होता है। विद्वान् लोग उससे बढ़कर किसी को नहीं जानते।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. जिस बोलते हुए पुरूष का विद्वान् क्षेत्रज्ञ अर्थात् शरीर का जानने हारा आत्मा भीतर शंका को प्राप्त नहीं होता उससे भिन्न विद्वान् लोग किसी को उत्तम पुरूष नहीं जानते । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
‘‘देखो, जिस मनुष्य के बोलते हुए उसका शरीरज्ञ विद्वान् आत्मा भीतर से शंका को प्राप्त नहीं होता, विद्वान् लोग संसार में उससे भिन्न अन्य किसी को श्रेष्ठ मनुष्य नहीं समझते। अतः, इन सब कारणों से ऐ साक्षी! तूने सब सच सच कहना, झूठ बिलकुल न बोलना।’’
 
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