Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो पुरुष धर्म के निश्चय करने में किये गये प्रश्न के उत्तर में अनृत भाषण करता है वह पापी अधोशिर हो बहुत ही अंधेरे नरक में जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (८।९२ - ९५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग - विरोध - यहाँ पूर्वापर के श्लोकों में (९१ और ९६ में) आत्मा के आश्रय से साक्षी देने की बात कही है । इस विषय में दोनों श्लोक परस्पर संबद्ध हैं । परन्तु इनके बीच के ये श्लोक उस प्रसंग को भंग करके कुछ अन्य बातों को ही कह रहे हैं, अतः ये श्लोक अप्रासंगिक हैं ।
२. अन्तर्विरोध - (क) ९२ वें श्लोक में गया और कुरूक्षेत्र को तीर्थ स्थान के रूप में माना है । किन्तु मनु ने किसी भी स्थानविशेष या नदी को तीर्थ नहीं माना है । मनु ने ‘अद्धिर्गावाणि शुध्यन्ति’ कहकर जल से शरीर - शुद्धि ही मानी है, मनादि की नहीं । अतः गंगादि में स्नान से मनादि की शुद्धि न होने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये उन्हें तीर्थ भी नहीं कहा जा सकता । (ख) और ९४ वें श्लोक में ‘किल्विषी’ नामक नरक की बात भी मनु से विरूद्ध और मिथ्या है । मनु सुखविशेष को स्वर्ग और दुःख - विशेष को नरक मानते हैं, स्थानविशेष को नहीं । एतदर्थ ४।८७ - ९१ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ग) और ९५ वें श्लोक में मत्स्य - मछली खाने की बात भी मिथ्या तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु मद्य - मांस को राक्षसों का भोजन मानते हैं, मानवों का नहीं । मनु ने मांस - भक्षण के लिये आठ प्रकार के घातक माने हैं, जिससे स्पष्ट है कि वे मांस - भक्षण को महापाप मानते हैं ।
३. शैली - विरोध - और इन श्लोकों की शैली अतिशयोक्तिपूर्ण, अयुक्तियुक्त तथा मिथ्या होने से मनु की नहीं है । जैसे ९४वें में झूठ बोलने पर नीचे शिर करके किल्विषी नामक नरक में जाना, ९३ वें में अन्धा होकर शत्रु - कुल में भीख मांगना, और ९५वें में अन्धे के द्वारा सकण्डक मछलियों को खाना इत्यादि बातें निराधार, अयुक्तियुक्त और भय - प्रदर्शनमात्र के लिये ही लिखी हैं । मनु ऐसी बात कहीं भी नहीं कहते । अतः ये सभी श्लोक असंगत तथा अन्तर्विरोध के कारण मनु की शैली के न होने से प्रक्षिप्त हैं ।