Manu Smriti
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एकोऽहं अस्मीत्यात्मानं यस्त्वं कल्याण मन्यसे ।नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः ।।8/91

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. हे कल्याण की इच्छा करने हारे पुरूष! जो तू ‘मैं अकेला हूं’ ऐसा अपने आत्मा में जानकर मिथ्या बोलता है सो ठीक नहीं है, किन्तु जो दूसरा तेरे हृदय में अन्तर्यामीरूप से परमेश्वर पुण्य - पाप का देखने वाला मुनि स्थित है, उस परमात्मा से डरकर सदा सत्य बोला कर । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
‘‘देखो, ऐ कल्याण चाहने वाले पुरुष! यदि तू ‘मैं’ अकेला हूं’ ऐसा अपने को समझकर झूठ बोलता है, तो वह ठीक नहीं। क्योंकि तेरे हृदय के अन्दर वह पुण्य-पाप का देखने वाला परमात्मा सदा चुपचाप बैठा हुआ है। उसके दण्ड से कैसे बच सकेगा?’’
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(कल्याण ) हे भले आदमी (यत त्वम ) जो तू (आत्मानम) अपने को (मन्यसे ) ऐसा मानता है कि (एक अहम अस्मि) मै अकेला हूॅ तो यह ठीक नही क्योकि (ते दति) तेरे हदय में (नित्यम स्थित ) सदा रहने वाला (एष) यह (पुण्यपापेक्षित) पुण्य पाप को देखने वाला (मुनि) ईश्वर विघमान है ।
 
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