Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (८।८५ - ९०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग - विरोध - (क) यहां पूर्वापर श्लोकों में (८।८४, ८।९१ में) आत्मा को आधार मानकर सत्य साक्षी देने का कथन किया गया है, जिससे इन श्लोकों का परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट ज्ञात होता है । और इन ८५ - ९० श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है, अतः ये श्लोक असंगत हैं । (ख) और न्यायाधीश साक्षियों से कैसे प्रश्न पूछे, यह बात ७८ से ८० श्लोकों में कही है । उसके बाद सत्यसाक्षी के महत्त्व का वर्णन किया गया है । किन्तु इन श्लोकों में न्यायाधीश द्वारा साक्षियों से प्रश्न करना पूर्ववर्णित विषय को पुनः प्रारम्भ किया है, अतः यह कथन असंगत और निराधार है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) मनु ने ८।९१ वें श्लोक में कहा है कि सब आत्माओं के हृदय में पाप - पुण्य का द्रष्टा परमात्मा विद्यमान है, उसको साक्षी मानकर असत्य साक्षी नहीं देनी चाहिये । परन्तु ८६ वें श्लोक में कहा है कि आकाश, भूमि, जल, चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि आदि देव सब प्राणियों के व्यवहारों को जानते हैं । यह जहाँ ९१वें श्लोक से विरूद्ध है, वहां असम्भव पौराणिक कल्पना के आश्रय से कथन किया गया है । क्यों कि आकाशादि को मनु ने प्रकृति के विकार माना है । और ये सभी अचेतन देव हैं, इनमें प्राणियों के व्यवहारों को जानने का सामथ्र्य कहाँ है ? अतः यह अवैदिक मान्यता मनु की कदापि नहीं हो सकती । (ख) और न्यायाधीश के समक्ष साक्षियों से वकील कैसे प्रश्न पूछे ? यह बात ७९ - ८० श्लोकों में कह दी है, फिर यहाँ उससे भिन्न विधि का वर्णन करना (८७ - ८८) पूर्वोक्त कथन का विरोधी होने से मौलिक नहीं है । (ग) और न्यायाधीश अथवा वकीलादि जो भी साक्षियों से प्रश्न करेंगे, उनकी तरफ ही साक्षियों के मुख होने चाहिये, परन्तु (८७ श्लोक में) उत्तर अथवा पूर्व की ओर मुख करने की बात असंगत है । क्यों कि प्रश्नोत्तर करने में दिशाओं का क्या महत्त्व है ? प्रश्नोत्तर करने वाले आमने सामने होने चाहिये । (घ) और ८८ वें श्लोक में ब्राह्मणादि चारों वर्णों से साक्षी के लिये पूछने के भिन्न - भिन्न प्रकार लिखे हैं, ये भी मनु की मान्यता से विरूद्ध हैं । क्यों कि साक्षी होने में प्रश्नोत्तर विधि में विभिन्नता का कथन निराधार ही है । मनु सदृश आप्तपुरूष ऐसी पक्षपातपूर्ण बात नहीं कह सकते ।
३. शैली - विरोध - इन श्लोकों की शैली पक्षपातपूर्ण तथा अतिशयोक्तिपूर्ण होने से मनुप्रोक्त नहीं है । जैसे - (क) साक्षियों से प्रश्नों में (८८ वें में) शूद्र को यह भय दिखाना कि तुम झूठ बोलोगे तो सब पाप लगेगें, किन्तु यह भय दूसरे वर्णों के लिये क्यों नहीं दिखाया । समान दुष्कर्म करने पर यह पक्षपातपूर्ण वर्णन क्यों ? मनु की शैली के अनुसार तो शूद्र की अपेक्षा ब्राह्मणादि अधिक दोषी होते हैं किन्तु यहाँ शूद्र को अधिक दोषी मानना मनु की शैली से विरूद्ध है । (ख) और ८९वें श्लोक में मिथ्यासाक्षी करने वाले को ऐसे लोकों में जाना लिखा है जिनमें ब्रह्महत्यारे, मित्रद्रोही और स्त्री व बालक के घातक जाते हैं । यह सब अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हैं । मनु ने इस प्रकार की कर्म - फल व्यवस्था कही नहीं मानी हैं । और नहीं ऐसे लोक - विशेष हैं, जिनमें पापी जाते हों । (ग) और मनु ने कर्म करने वाले को ही कर्मफल का भोक्ता माना है, किन्तु ९०वें श्लोक में कहा है कि यदि साक्षी झूठ बोलता है, तो उसका जन्मभर का पुण्य कुत्ते को मिलेगा । यह कथन अयुक्तियुक्त निराधार होने से मनुप्रोक्त कदापि नहीं हो सकता । इसी प्रकार ८५ - ८६ श्लोकों में जड़ वस्तुओं को द्रष्टा मानना बेतुकी बात है । इस तरह ये सभी श्लोक असंगत, अन्तर्विरूद्ध और शैली-विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।