Manu Smriti
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साक्ष्येऽनृतं वदन्पाशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम् ।विवशः शतं आजातीस्तस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम् ।।8/82
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।८२ वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - यहाँ पूर्वापर श्लोकों में सत्य साक्षी के लाभों का वर्णन किया गया है । किन्तु इनके मध्य में साक्षी देने में झूठ बोलने पर दण्ड का कथन करना क्रम को भंग कर रहा है, अतः असंगत है । २. शैली - विरोध - इस श्लोक में झूठी साक्षी देने वाले के लिये कहा है कि वह सैंकड़ों जन्मों तक वरूण के पाशों से बन्धकर दुःख पाता है । किन्तु मनु ऐसी अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अयुक्तियुक्त बात कहीं नहीं कहते । उन्होंने इस प्रकार किसी एक कर्म के कारण सैंकड़ों जन्मों में दुःख भोगने की बात कही नहीं मानी । मनु ने सात्त्विकादि गुणों के कारण विभिन्न योनियों में जाना माना है, किसी कर्म विशेष के कारण नहीं । और वरूण के पाशों की बात भी पौराणिक कल्पना है । अतः यह मनु की शैली का श्लोक न होने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(साक्ष्ये) गवाही में (अनृतम) भूल (वदन) बोलने वाला (भृशम) बहुत (वारूणै पाशै:) वरूण के पाश अर्थात ईश्वर के दण्डरूपी नियमों से (बदघ्यते) बाॅधा जाता है। (विवश) विवश होकर (आशतम आजाती) सौ जन्मो तक (तस्मात) इसलिये ऋतम साक्ष्यम) सच्ची गवाही देने वाले को ईश्वर की ओर से किसी न किसी जन्म में अवश्यं दण्ड मिलता है । उसका कभी छुटकारा हो ही नही सकता (सौ जन्मो का अर्थ है दीर्धकाल तक )
 
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