Manu Smriti
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एकोऽलुब्धस्तु साक्षी स्याद्बह्व्यः शुच्योऽपि न स्त्रियः ।स्त्रीबुद्धेरस्थिरत्वात्तु दोषैश्चान्येऽपि ये वृताः ।।8/77
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
निर्लोभी एक पुरुष भी साक्षी हो सकता है। परन्तु बहुत सी लोभिणी स्त्रियाँ साक्षी नहीं हो सकतीं, क्योंकि स्त्रियों की बुद्धि एक दशा में स्थिर नहीं रहती तथा जो मनुष्य दोषयुक्त हैं वह भी साक्षी होने योग्य नहीं हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।७७वां) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है - १. प्रसंग - विरोध - मनु ने सामान्यरूप से साक्षियों की विशेषतायें ६३-६४श्लोकों में कही हैं, वहीं मनु यदि और कुछ आवश्यक समझते तो अवश्य कहते । किन्तु यहां उस विषय को उठाना उचित नहीं है । और ७६ व ७८ श्लोकों में साक्षी लेने की विधि चल रही है, इनके मध्य में यह श्लोक उस प्रसंग को भंग करने से असंगत हैं । २. अन्तर्विरोध - मनु ने इस धर्मशास्त्र में स्त्रियों को भी मनुष्यों से कम दर्जा कहीं भी नहीं दिया है । किन्तु इसमें स्त्रियों के प्रति हीनभावना प्रकट करते हुए लिखा है कि पवित्र स्त्रियाँ भी साक्षी के योग्य नहीं है । यह मनु की मान्यता से विरूद्ध है । और ६८वें श्लोक में स्त्रियों की साक्षी के लिये मनु ने स्पष्ट विधान किया है, तो वे यहाँ निषेध कैसे कर सकते थे ? अतः यह विरोधी कथन मनुप्रोक्त नहीं है । ३. पुनरूक्त - और इस श्लोक में साक्षी को लोभरहित होने की बात कही है, किन्तु यह तो ६३ वें श्लोक में कह चुके हैं, फिर यहाँ कहना पुनरूक्त होने से मौलिक नहीं है । अतः यह श्लोक असंगत, अन्तर्विरूद्ध और पुनरूक्त होने से प्रक्षिप्त है ।
 
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