Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
राजा, कारुक (रसोई बनाने वाला), नट आदि, वेदपाठी तथा ब्रह्मचारी आदि जो सब से विलग किया गया है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीन (८।६५-६७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. अन्तर्विरोध - (क) ८।६५ में साक्षी के लिये कारीगरादि का निषेध किया है । इस से स्पष्ट है कि ये श्लोक उस समय मिलाये गये हैं, जब कि वर्ण - व्यवस्था जन्म के आधार पर प्रचलित हो गई और आजीविका की व्यवस्थाओं के आधार पर बढ़ई, सुनारादि उपजातियाँ भी बन गई थीं । क्यों कि मनु की मान्यता में ब्राह्मणादि चार ही वर्ण होते हैं, कारीगर कोई भिन्न वर्ण नहीं । क्यों कि कारीगरी आदि कर्म वैश्य के कर्मों में ही मनु ने माने हैं । (ख) और ६३ वें श्लोक में सभी वर्णों के आप्तपुरूषों को साक्षी बनाने को कहा है, किन्तु यहाँ उससे विरूद्ध कारू - शिल्पी, जो वैश्य के कर्मों में ही होने से वैश्य ही हैं, उसका निषेध करना, और नृपर्ति - राजा क्षत्रिय हैं, श्रोत्रिय - वेदपाठी ब्राह्मण हैं, इनका निषेध करना ६३ वें श्लोक से विरूद्ध है । (ग) और ६८ वें श्लोक में अन्त्यज को भी साक्षियों में गिनाया है, किन्तु ६६वें श्लोक में उसका निषेध किया है । इन विरोधों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
२. पुनरूक्त - दोष - ६६ - ६७ श्लोकों में जिनको साक्षी के अयोग्य बताया है, उनका कथन ६४वें श्लोक में ही कर दिया गया है । जैसे - ‘व्याधिग्रस्त’ के अन्तर्गत ही विकलेन्द्रिय, मत्त, उन्मत्त आ जाते हैं, ‘आत्र्त’ के अन्तर्गत श्रमात्र्त, कामार्त, क्षुत् - तृष्णोपपीडित आ जाते हैं, ‘दृष्टदोषाः’ के अन्तर्गत दस्यु, तस्कर, वृद्ध, शिशु, क्रुद्ध, विकर्मकृत् आ जाते हैं, और ‘सहायाः’ के अन्तर्गत आधीन रहने वाले नौकरादि आ जाते हैं । इस प्रकार ६४ वें श्लोक की बातें ही यहां दुबारा कहीं हैं, कोई स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण बात इनमें नहीं कही हैं । अतः ये मनुप्रोक्त मौलिक श्लोक नहीं हैं ।