Manu Smriti
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पृष्टोऽपव्ययमानस्तु कृतावस्थो धनैषिणा ।त्र्यवरैः साक्षिभिर्भाव्यो नृपब्राह्मणसंनिधौ ।।8/60
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब प्रतिवादी न्यायालय में आकर कहे कि हमने इस ऋणदाता से धन नहीं लिया है तब वादी न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित किये हुए साक्षियों के अतिरिक्त अन्य अधिक साक्षियों द्वारा अपने ऋण देने को प्रमाणित करे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
अन्तर्विरोध - मनु ने अपने समस्त धर्म - शास्त्र में मनुष्य - मात्र के कत्र्तव्यों का निर्देश बिना किसी पक्षपात के किया है । किन्तु इस श्लोक में ब्राह्मणों के पक्षपाती ने पूर्वापर की संगति से विरूद्ध ही मिश्रण किया है । मनु ने पहले (७।६५ में) यह कहा है कि प्रधान - मन्त्री के आधीन न्याय व दण्ड होते हैं और यहां राजा के द्वारा नियुक्त ब्राह्मण को न्यायाधीश मानकर उसके सामने जाने की बात कही है, यह पूर्वोक्त कथन से विरूद्ध है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु यदि ऋणदाता-द्वारा समन जारी कराए जाने पर, और न्यायाधीश-द्वारा पूछे जाने पर अभियुक्त इन्कार करे, तो उसे चाहिए कि वह राजाधिष्ठित ब्राह्मणों की न्यायसभा में कम से कम तीन साक्षियों से अपने पक्ष को सिद्ध करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
राजा था ब्राहम्ण के सामने ऋण के सामने ऋण का इनकार करने पर महाजन को चाहिये कि कम से कम सात गवाह पेश करे ।
 
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