Manu Smriti
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धर्मेण व्यवहारेण छलेनाचरितेन च ।प्रयुक्तं साधयेदर्थं पञ्चमेन बलेन च ।।8/49
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
(1) धर्म (2) व्यवहार (अर्थात् साक्षी लेखादि), (3) छल, (4) आचरण (अर्थात् व्रत उपवास) तथा (5) बल इन पाँच उपायों में से किसी भी उपाय द्वारा अपने दिये हुए धन को प्राप्त करे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीनों (८।४८-५०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - (क) यहां न्यायालय में साहूकार के धन को कर्जदार के न देने पर विवाद का प्रसंग है । इस विषय में निर्णय से पूर्व राजा को (५१-५२) लेख प्रमाणादि की भलीभांति जांच करनी चाहिये । इनके मध्य में ये श्लोक उस क्रम को भंग कर रहे हैं । (ख) और ४८ - ४९ श्लोकों में कुछ दूसरे ही उपाय बताये गये हैं । और न्यायालय में उपस्थित होने का अभिप्राय यही है कि वे विवाद का निर्णय स्वयं नहीं कर सकते । परन्तु ५०वें श्लोक में स्वंय धन प्राप्त करने की बात कहना असंगत ही है । क्यों कि यदि वह स्वयं धन प्राप्त कर लेता तो न्यायालय में ही क्यों आता ? २. अन्तर्विरोध - और राजा के लिये ८।८ में कहा है कि वह धर्म के आश्रय से न्याय करे । किन्तु यहाँ धर्म से विरूद्ध छलादि को भी निर्णय करने में आधार माना है । यदि राजा ही निर्णय करने में छल का आश्रय लेगा तो दूसरों की क्या दशा होगी ? अतः धर्म - शास्त्र में छलादि के आश्रय करने की बात मनु के समस्त विधान के विरूद्ध है ।
 
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