Manu Smriti
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यैर्यैरुपायैरर्थं स्वं प्राप्नुयादुत्तमर्णिकः ।तैर्तैरुपायैः संगृह्य दापयेदधमर्णिकम् ।।8/48
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस जिस उपाय से ऋणदाता अपने धन को प्राप्त कर सके उस उस उपाय से ऋणी को पकड़ कर राजा धन को दिला दे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीनों (८।४८-५०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - (क) यहां न्यायालय में साहूकार के धन को कर्जदार के न देने पर विवाद का प्रसंग है । इस विषय में निर्णय से पूर्व राजा को (५१-५२) लेख प्रमाणादि की भलीभांति जांच करनी चाहिये । इनके मध्य में ये श्लोक उस क्रम को भंग कर रहे हैं । (ख) और ४८ - ४९ श्लोकों में कुछ दूसरे ही उपाय बताये गये हैं । और न्यायालय में उपस्थित होने का अभिप्राय यही है कि वे विवाद का निर्णय स्वयं नहीं कर सकते । परन्तु ५०वें श्लोक में स्वंय धन प्राप्त करने की बात कहना असंगत ही है । क्यों कि यदि वह स्वयं धन प्राप्त कर लेता तो न्यायालय में ही क्यों आता ? २. अन्तर्विरोध - और राजा के लिये ८।८ में कहा है कि वह धर्म के आश्रय से न्याय करे । किन्तु यहाँ धर्म से विरूद्ध छलादि को भी निर्णय करने में आधार माना है । यदि राजा ही निर्णय करने में छल का आश्रय लेगा तो दूसरों की क्या दशा होगी ? अतः धर्म - शास्त्र में छलादि के आश्रय करने की बात मनु के समस्त विधान के विरूद्ध है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिन जिन उपायो से महाजन का रूपया वसूल हो सके उन उन उपायो को काम में लावे ।
 
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