Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
राजा चोर की चुराई वस्तु को लेकर सब वर्णों को देवे (अर्थात् जो उसका स्वामी है उसे देवे)। यदि राजा स्वयं उस वस्तु को लेले तो जो पाप चोर को होता है वह राजा को होवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये पाच्च (८।३७-४१) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - ८।३ में कहा है कि राजा १८ प्रकार के विवादों का निर्णय करे । और उसके बाद ३४वें श्लोक से चोरी में गये धन की व्यवस्था और चोरों को दण्ड का विधान किया है । इस प्रसंग में भूमि में गड़े धन की व्यवस्था अप्रासंगिक है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) ३७ वें श्लोक में कहा है कि भूमि आदि में गड़े समस्त धन का स्वामी ब्राह्मण है । इसलिये ब्राह्मण उस समस्त धन को ले लेवे । और ३८-३९ श्लोकों में कहा है कि भूमि में गड़े हुए धन में से आधा धन द्विजों को देवे और आधा कोश में रखे । इन दोनों विधानों में परस्पर - विरोध है ।
(ख) और मनु ने ब्राह्मण के कर्मों में यज्ञकरनादि से ब्राह्मण की जीविका का भी निर्धारण किया है । यदि ब्राह्मण को ‘सर्वस्याधिपतिः’ (३७) मनु मानते, तो उसका निर्देश भी वहां अवश्य करते । और सन्तोषादि से जीवनयापन करने वाले ब्राह्मण को धन का स्वामी बनाकर उसके उद्देश्य से गिराना ही है ।
(ग) और ८।३३ श्लोक में कहा है कि राजा नष्ट या खोये धन के प्राप्त होने पर उसमें से छठा, १०वां अथवा १२वां भाग ले लेवे । शेष धन उसके स्वामी को दे देवे । किन्तु यहां ४० वें श्लोक में कहा है चुराये गये धन को सब वर्णों में विभक्त कर देवे, राजा कुछ भी न लेवे । यह उससे विरूद्ध व्यवस्था है ।
(घ) और मनु ने धर्म - निर्णय के लिये कुल और जाति को कहीं आधार नहीं माना है । वे धर्म के निर्णय में सत्य को ही मुख्य आधार मानते हैं और ८।८, ४४, ४५, १२६ श्लोकों के अनुसार देश व काल को भी आधार मानते हैं । यदि कुल व जाति को धर्म - निर्णय में आधार माना जाये तो धर्मशास्त्र की क्या आवश्यकता रहेगी ? अतः ४१वें श्लोक में जाति, व कुलधर्मों, को आधार बनान मनु की मान्यता से विरूद्ध है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा को चाहिये कि वह चोरों से चुराए गये धन को, उस के स्वामी को, चाहे वह किसी भी वर्ण का हो, देदे। यदि राजा उसका उपयोग करता है, तो वह चोर के दण्ड को प्राप्त होता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जिस धन को चोर चुरा ले गये हो और वह मिल जावे तो राजा उसको सब वर्णो को (अर्थात जिसका हो उसको) दे देवे । जो राजा इस प्रकार के धन को स्वयम भोगता है वह चोरी के दोष का भागी होता है ।