Manu Smriti
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अर्थानर्थावुभौ बुद्ध्वा धर्माधर्मौ च केवलौ ।वर्णक्रमेण सर्वाणि पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम् ।।8/24
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अर्थ व अनर्थ का प्रमाण लेकर केवल अधर्म का ध्यान करके वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के क्रमानुसार सब कार्य अकार्य को देखें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये पांच्च (८।२०-२४) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. अन्तर्विरोध - (क) मनु की मान्यता के अनुसार ब्राह्मणादि वर्णों का आधार कर्म है, जन्म नहीं । किन्तु यहां २० वें श्लोक में जन्म के आधार पर जीविका करने वाले को ब्राह्मण माना है और उसे राजा की सभा में धर्म - प्रकाश बनाने की अनुमति दी है । यह मनु की मान्यता से विरूद्ध और पक्षपातपूर्ण होने से मान्य नहीं हो सकती । इसके लिये १।९२-१०१ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । (ख) और मनु ने ८।११ में वेदों के वेत्ताओं को न्याय - सभा में नियुक्त करने का निर्देश किया है, किन्तु यहां जन्म के आधार पर ब्राह्मण को धर्म - प्रवक्ता कहना उससे विरूद्ध है । और ७।६५ में यह स्पष्ट किया है कि न्याय और दण्ड प्रधानमन्त्री के आधीन हों, तो यहां दूसरी व्यवस्था देना उससे विरूद्ध है । प्रतीत होता है कि जन्म - गत वर्णव्यवस्था के प्रचलित होने पर इन श्लोकों का प्रक्षेप किया गया है । २. प्रसंग विरोध - ८।८ श्लोक में कहा है कि राजा धर्म का आश्रय करके विवादों का निर्णय करे । और उसके बाद धर्म का महत्त्व बताया गया है । इस प्रसंग में ‘धर्म - प्रवक्ता’ कौन हो, यह कथन अप्रासंगिक है । और धर्म - प्रवक्ता का कथन ८।११ में हो चुका है, पुनः उसका प्रसंग प्रारम्भ करना असंगत है । ३. शैली - विरूद्ध - इन श्लोकों की शैली पक्षपातपूर्ण है । यह मनु के अनुसार वर्णों की व्यवस्था गुण - कर्म स्वभाव के अनुसार है, जन्म के आधार पर नहीं । और मनु ने शूद्र को पवित्र मानकर उसके साथ घृणाभाव का सर्वथा निषेध किया है । यदि जन्म का ब्राह्मण धर्म - प्रवक्ता बन सकता है, चाहे वह पढ़ा हुआ है अथवा नहीं, तो शूद्र का निषेध क्यों ? यदि शूद्र वेदादि - शास्त्रों से अनभिज्ञ होने से न्यायकार्य के अयोग्य है, तो जन्मना अनपढ़ ब्राह्मण योग्य कैसे हो सकता है ? अतः यह वर्णन पक्षपात - पूर्ण ही है । २१ - २२ श्लोक बीसवें से ही सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । और २४ वें श्लोक में विवादों का निर्णय वर्णों के क्रम से करे, यह कथन भी पक्षपात की भावना से ही पूर्ण है । अन्यथा जिसका विवाद पहले आये, उसी का निर्णय प्रथम करना चाहिये । न्याय - सभा में न्याय के लिये मनुष्य - मात्र के लिये समान व्यवस्था होनी चाहिये । अतः ये श्लोक प्रसंग विरोध, अन्तर्विरोध तथा शैलीविरोध होने से परवर्ती प्रक्षेप हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
उस समय वह राजा केवल अर्थ-अनर्थ किंवा धर्म-अधर्म को ही मद्दे-नज़र रखके ब्राह्मणादि वर्ण-क्रम से वादी-प्रतिवादियों के सब मुक़दमों को देखे।
 
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