Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (८।९-१०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. अन्तर्विरोध - मनु ने ७।१४१ में कहा है कि राजा की किसी कारण - वश अनुपस्थिति हो तो राजा के कार्य को कौन करे ? वहाँ यह लिखा है कि राज के कार्य को प्रधानमन्त्री करे । किन्तु इस श्लोक में ब्राह्मण के लिये कहा है । यह परस्पर - विरोधी कथन मनु - प्रोक्त नहीं हो सकता । और राजा के कार्य को राजा के साथ रहने वाला प्रधान मन्त्री ही भलीभांति जान सकता है, अन्य पुरूष नहीं, चाहे वह कितना भी विद्वान् क्यों न हो ।
२. शैली - विरूद्ध - मनु ने (८।८ में) स्पष्ट कहा है कि राजा विवादों का निर्णय करे । किन्तु यहां (८।१० में) राजा के स्थान पर कार्य करने वाले को ‘संपश्येत्’ देखभाल करने को ही कहा है । यह क्रिया राजा के न्याय - कार्य को अपूर्ण कहने के कारण ८।२ श्लोक की भांति मौलिक नहीं है । और इसमें भी ८।२ श्लोक की भांति खड़े होकर कार्य करने की बात असंगत होने से मान्य नहीं हो सकती । और ८।१०वां श्लोक नवम श्लोक से सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त है । यह किसी ब्राह्मणवाद के पक्षपाती ने पूर्वापर - प्रसंग से विरूद्ध, परस्पर विरूद्ध तथा पुनरूक्त करके प्रक्षेप किया है ।