Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अठारह प्रकार के अभियोग यह हैं-(1) लेनदेन (2) अमानत (3) उस वस्तु को बेचना जिसका कोई स्वामी न हो (4) साझा (5) ऋण लेकर इन्कार करना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अठारह मार्ग ये हैं - उनमें १-किसी से ऋण लेने - देने का विवाद, २- धरोहर अर्थात् किसी ने किसी के पास पदार्थ धरा हो और मांगे पर न देना, ३- दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे, ४- मिल - मिला के किसी पर अत्याचार करना, ५- दिये हुए पदार्थ का न होना, ६- वेतन अर्थात् किसी की ‘नौकरी’ में से ले लेना या कम देना, ७- प्रतिज्ञा से विरूद्ध वर्तना, ८- क्रय - विक्रयानुशय अर्थात् लेन - देन में झगड़ा होना, ९- पशु के स्वामी और पालने वाले का झगड़ा, १० - सीमा का विवाद, ११-१२- किसी को कठोर दण्ड देना, कठोर वाणी का बोलना, १३- चोरी - डाका मारना, १४- किसी काम को बलात्कार से करना, १५- किसी की स्त्री वा पुरूष का व्यभिचार होना, १६- स्त्री और पुरूष के धर्म में व्यतिक्रम होना, १७- विभाग अर्थात् दायभाग में वाद उठाना, १८- द्यूत अर्थात् जड़ पदार्थ और समाह्वय अर्थात् चेतन को दाव में धर के जूआ खेलना, ये अठारह प्रकार के परस्परविरूद्ध व्यवहार के स्थान हैं ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
1. अठारह प्रकार के विवादस्पद विषय-
तेषामाद्यमृणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः।
संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥ ४॥
वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः।
क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः॥ ५॥
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके।
स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणमेव च॥ ६॥
स्त्रीपुंधर्मी विभागश्च द्यूतमाह्वय एव च।
पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ ७॥
उन में पहला (१) ऋण का लेन-देन, (२) धरोहर या गिर्वी रखना-मांगना, (३) मालिक से बिना पूछे उसकी वस्तु बेचना, (४) साझे का व्यवहार, (५) उधार या दान में दिया हुआ पदार्थ पुनः न देना या ग्रहण करना, (६) वेतन का न देना, (७) इक़रारनामे या प्रतिज्ञा के विरुद्ध वर्तना, (८) क्रय-विक्रय में झगड़ा होना, (९) पशुपति और पशुपालक (चरवाहा) में झगड़ा होना, (१०) सीमा पर झगड़ा होना, (११) किसी से मार-पीट करना, (१२) किसी से गाली-गलौच करना, (१३) चोरी-डाका डालना, (१४) किसी काम को बलात्कार से करना, (१५) किसी की स्त्री से सम्बन्ध करना, (१६) पति-पत्नी के धर्म में व्यतिक्रम होना, (१७) दायभाग की बांट में झगड़ा होना, तथा (१८) अठारहवां, जड़ पदार्थ व चेतन पदार्थ को दाव पर रखकर जूआ खेलना है।१ इस न्यायक्षेत्र में ये अठारह प्रकार के विवादग्रस्त स्थान हैं।
१. सट्टा, जूआ आदि द्यूत है; और तीतरबाजी, वटेरबाजी, मेढावाजी, मुर्गावाजी आदि समाह्वय कहलाता है।