Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सभा में बैठकर व खड़े होकर, दाहिना हाथ उठाकर, सामान्यवस्त्र व आभूषण धारण कर राजकर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।२ वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है -
१. वेद - विरूद्ध - इस श्लोक में कहा है कि राजा न्याय - सभा में जाकर ‘बैठकर अथवा खड़े होकर’ और दाहिने हाथ को उठाकर विवादों को देखे । यहाँ खड़े होकर और दाहिना हाथ उठाना दोनों ही बात वेद - विरूद्ध तथा अव्यावहारिक हैं । वेद में (यजु० ३३।१५ में) राजा को मन्त्रियों के साथ ‘आसीदन्तु’ - बैठने के लिए ही कहा है । और विवादों को सुनने तथा निर्णय करने में पर्याप्त समय लग जाता है, तब तक राजा खड़ा रहे और दाहिने हाथ को उठाये रखे, यह निरर्थक ही राजा के लिये दण्ड हो जाता है । मानो राजा को ही अपराध के कारण दण्डित किया गया है ।
२. शैली - विरूद्ध - मनु की शैली यह है कि वे किसी बात को अथवा विशेषण को बार - बार प्रयुक्त नहीं करते । किन्तु यहां (८।१ में) राजा को ‘विनीतः’ कहने पर भी (८।२ में) पुनः ‘विनीत’ शब्द का प्रयोग पुनरूक्त होने से मनु - प्रोक्त नहीं है । और ८।३-८ श्लोकों में ‘कुर्यात् कार्यनिविर्णयम् - राजा का कार्य विवादों का निर्णय करना कहा है’ । किन्तु ८।२ में ‘पश्येत् - देखे’ क्रिया का प्रयोग है, जो कि राजा के लिये उचित नहीं है । क्यों कि राजा का कार्य न्याय करना है, केवल देखना नहीं । अतः राज - धर्म प्रकरण में मनु इस प्रकार की अधूरी क्रियाओं का कैसे प्रयोग कर सकते हैं ? अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
उस समय राजा न्यायाधीश के वेष-भूषा को धारण किये हुए, न्यायगद्दी पर बैठ कर या खड़े होकर, तथा अपने दहिने हाथ को हुक्म लिखने के लिए उद्यमयुक्त करके वादी-प्रतिवादियों के मुकद्दमों को देशाचार तथा शास्त्रव्यवहार हेतुओं के प्रतिदिन देखा करे, जोकि भिन्न-भिन्न प्रकार के अठारह विवादस्पद भागों में विभक्त किये गये हैं।