Manu Smriti
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पार्ष्णिग्राहं च संप्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले ।मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलं अवाप्नुयात् ।।7/207
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
राज-मण्डल में (3) पाष्र्णिग्राह तथा (4) क्रन्द्र इन दोनों राजाओं की सम्मति से यात्रा करें। इन दोनों की सम्मति बिना यात्रा करने से भय की आशंका है कि वे दोनों उपद्रव करेंगे। अतः ससम्मति लेकर यात्रा करने से मित्र व शत्रु से यात्रा का फल मिलता है।
टिप्पणी :
(3) पाष्र्णिगाह वह राजा है जो पीछे रहता है। (4) क्रन्द वह राजा है जो उस पाष्र्णिगाह की सम्मति के अनुसार कार्य करता हो जो कि अपने निर्देश (इशारे) के विरुद्ध काम करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अपने राज्य में ‘पार्ष्णिग्राह’ संज्ञक राजा का (१५६) तथा ‘आक्रन्द’ संज्ञक राजा का (१५६) ध्यान रखके मित्र अर्थात् पराजित शत्रु से युद्धयात्रा का फल प्राप्त करे । अभिप्राय यह है कि अपने पड़ोसी राजाओं से सुरक्षा के लिये या उनको वश में करने के लिए कौन से फल की अधिक उपयोगिता होगी, यह सोचकर शत्रु या मित्र से वही - वही फल मुख्यता से प्राप्त करे ।
टिप्पणी :
(७।२०५ - २०७) ये तीन श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - ये श्लोक पूर्वापर क्रम को भंग करने से प्रक्षिप्त हैं । २०२ से २०४ तक श्लोकों में पराजित राजा के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? उससे धनादि की अपेक्षा मित्रता (सन्धियुक्त) कर लेनी चाहिए । और २०८ श्लोक में इसका कारण स्पष्ट किया है कि दुर्बल शत्रु - राजा को मित्र बनाकर रखने से राजा की अधिक उन्नति होती है । अतः इनके बीच के श्लोक इस परस्पर सम्बद्धता को भंग करने से प्रक्षिप्त हैं । और २०५ में युद्ध - नीति में भाग्य के आधीन कर्म बताकर अप्रासंगिक वर्णन किया है । २. अन्तर्विरोध - (क) पराजित शत्रु - राजा के धन को २०४ श्लोक में अप्रीति का कारण बताया है और २०८ में उसी से सम्बद्ध बात कही है कि शत्रु राजा के हिरण्यादि की अपेक्षा उससे मित्रता करना श्रेष्ठ है । किन्तु २०६ - २०७ श्लोकों में हिरण्य व भूमि के लिए सन्धि करके उसके साथ जाने और ‘युद्धयात्रा का फल’ प्राप्त करने की बात कही है, जो पूर्वोक्त बात से विरूद्ध है । (ख) और मनु की मान्यता के अनुसार (७।१) राजा की सफलता तथा उत्तम गति की प्राप्ति राजधर्मों का पालन करने से होती है । और (७।३ में) राजा की आवश्यकता अराजकता को दूर करने के लिए बताई है । यदि राजा भी भाग्य के भरोसे, (जो होना है, वही होगा) बैठ जाये, तो राज्य का प्रशासन अस्त - व्यस्त हो जाये । परन्तु यहां २०५ श्लोक में भाग्य के आधीन सब काम बताकर राजा को निष्क्रिय बनाने का प्रयास किया गया है और विशेष रूप से युद्ध - नीति में तो भाग्य की बात बताना राज्यव्यवस्था को छिन्न - भिन्न करना है । भाग्य के भरोसे रहना कायर और पलायनवादी लोगों का मिथ्या विश्वास है । राजा के लिये ही क्या, यह तो मानवमात्र को निरूद्यम बनाने वाला है । अतः असंगत एवं अन्तर्विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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