Manu Smriti
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कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः ।एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः । । 2/19
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्रह्मवर्त के समीप कुरुक्षेत्र, मत्स्य*, पांचाल, शूरसेनक वह सब देश ब्रह्मर्षियों के हैं।
टिप्पणी :
*भदावर।, थानेश्वर के उत्तर पश्चिम हिमालय पहाड़ और चम्बल नदी के मध्य का देश।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।१३८/२।१९ वां श्लोक निम्न आधार पर प्रक्षिप्त है - इस श्लोक में ब्रह्मावत्र्त - देश के समीप ब्रह्मर्षि - देश के प्रदेशों को बताया गया है । प्रथम तो ये कुरूक्षेत्रादि प्रदेश ब्रह्मावत्र्त के अन्तर्गत ही आ जाते हैं । सरस्वती - सिन्धु और दृषद्वती ब्रह्मपुत्रा नदियों के बीच के प्रदेश को ब्रह्मावत्र्त माना गया है । कुरूक्षेत्र, मत्स्य, पंच्चाल तथा सूरसेनक प्रदेश इस प्रदेश के अन्तर्गत ही होने से ब्रह्मर्षि देश कोई भिन्न नहीं है । दूसरी बात यह भी है कि १।१३७ श्लोक में सदाचार का वर्णन है और १।१३९ श्लोक में भी उसी विषय का वर्णन है, अतः इनके मध्य में यह श्लोक प्रकरण - विरूद्ध है । क्यों कि यहां भिन्न - भिन्न देशों की सीमाओं का प्रकरण नहीं है । ब्रह्मावत्र्त की सीमा सदाचार को बताने के लिये प्रसंगवश कही है । सदाचार को बताने के लिये ब्रह्मर्षि - देश के विषय में कुछ कहा भी नहीं है । और यदि इस श्लोक को मौलिक माना जाये, तो १।१३९ वें श्लोक का सम्बन्ध भी १।१३८ से समीप होने से होगा । फिर पृथिवी के सब मनुष्य ब्रह्मर्षि - देश में उत्पन्न विद्वान् ब्राह्मणों से अपने अपने चरित्र की शिक्षा लेवें, यह अर्थ होगा । इस अर्थ में दो दोष होंगे प्रथम तो ब्रह्मावत्र्त देश की सीमा बताना निरर्थक होगा और ब्रह्मावत्र्त देश विशाल है, ब्रह्मर्षि देश उसी का भाग है , तो सदाचार की सीमा बहुत ही संकुचित हो जायेगी । अतः यह श्लोक असंगत ही है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचालाः शूरसेनकाः एष ब्रह्मर्षि देशः) कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल, शूरसेनक, यह ब्रह्मर्षिदेश कहलाता है। (वै ब्रह्मावत्र्तादनन्तरः) यह ब्रह्मावर्त से मिला हुआ है।
 
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