Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस देश में सब वर्णों और आश्रमों का आचार जो परम्परा से क्रमानुसार चला आता है और जिसे वर्णसंकरों से आचार निषेध कहा है, वह सदाचार कहलाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
तस्मिन् देशे उस ब्रह्मावर्त देश में वर्णानां सान्तरालानां पारम्पर्य-क्रमागतः य आचारः वर्णों और आश्रमों का जो परम्परागत आचार है । सः वह सदाचार उच्यते सदाचार कहलाता है ।
टिप्पणी :
वूलरादि पाश्चात्य - विद्वानों तथा टीकाकारों का अन्यथा व्याख्यान: १।१३७/२।१८ इस श्लोक की व्याख्या में टीकाकारों ने ‘सान्तरालानाम्’ पद की व्याख्या वर्णसंकर वा संकीर्ण - जातियां की है, यह व्याख्या अशुद्ध तथा मनु के आशय के विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकती । इस श्लोक में ब्रह्मावत्र्त देश में परम्परा से प्रचलित आचार को सदाचार कहा है । यदि ‘वर्णसंकर या संकीर्ण जाति’ अर्थ किया जाये, तो प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि क्या वर्ण संकरों में प्रचलित परम्परा को ‘सदाचार’ माना जा सकता है ? जब कि मनु ने १०।५-७३ श्लोकों में वर्ण संकरों के आचार को निन्द्य आचार कहा है । और १०।२४ श्लोक में तो यह लिखा है -
व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च ।
स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः ।।
अर्थात् वर्णों के व्यभिचार से, अगम्या स्त्री के गमन करने से, और अपने कत्र्तव्यों के त्याग से ‘वर्णसंकर’ हो जाते हैं । क्या इनके आचरण को मनु सदाचार मान सकते हैं ? अतः मनु के आशय के अनुसार और शाब्दिक अर्थ को भी ध्यान में रखकर ‘आश्रम’ अर्थ ही यहाँ करना चाहिए । मनुस्मृति में भी वर्णों तथा आश्रमों के ही धर्मों का वर्णन किया है । अतः प्रतिपादित धर्मों से भिन्न विषय का ग्रहण ‘सदाचार’ के लक्षण में कैसे हो सकता है ? १।२ श्लोक में ‘अन्तरप्रभवाणाम्’ और इस श्लोक के ‘सान्तरालानाम्’ पद का ‘आश्रम’ अर्थ ही सुसंगत होता है । एतदर्थ (१।२) श्लोक की टिप्पणी भी द्रष्टव्य है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तस्मिन् देशे) उस देश में (य आचारः) जो आचार (पारम्पर्य क्रमागतः) सिलसिले से पीढ़ी दर पीढ़ी चला आता है। (वर्णानां स + अन्तरालानाम्) वर्णों का और बीच के लोगों का (अर्थात् जिनका वर्ण निश्चित नहीं है) (स सदाचार उच्यते) उसको सदाचार कहते हैं।
अर्थात् ब्रह्मावर्त देश के लोगों का आचार दूसरे लोगों के लिये माननीय है।