Manu Smriti
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शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत् ।गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः ।।7/186

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपना मित्र जो गुप्तरीति से शत्रु की सेवा करता है वा अपने सेवक आदि जो अपने यहाँ से निकल कर द्वितीय बार आकर कार्य सम्पादक करते हों उन दोनों से सचेष्ट (होशियार) रहना चाहिये, क्योंकि उनका उठाया उपद्रव कठिनता से शान्त होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो भीतर से शत्रु से मिला हो और अपने साथ भी ऊपर से मित्रता रखे, गुप्तता से शत्रु को भेद देवे उसके आने जाने में, उससे बात करने में अत्यन्त सावधानी रखे क्यों कि भीतर शत्रु ऊपर मित्र को बड़ा शत्रु समझना चाहिए । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो मनुष्य ऊपर से तो अपने साथ मित्रता रखे, परन्तु भीतर से शत्रु के साथ मिला हुआ रहे और उसे गुप्तता से भेद देवे, उसके साथ गूढ़ बातचीत करने में तथा उसके गमनागमन में अत्यन्त सावधानी रखे, क्योंकि ऐसा शत्रु, जोकि ऊपर से मित्र और भीतर से शत्रु हो, बड़ा ही हानिकारक शत्रु होता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
शत्रु सेवी मित्र अर्थात जो मित्र शत्रु से मिला हो और गत प्रत्यागत अर्थात जो अफसर पहले छुडा दिया गया हो और फिर आ गया हो इनसे यक्तर अर्थात सचेत रहे क्योकि यह भयानक शत्रु हो सकते है
 
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