Manu Smriti
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निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः ।तस्य शास्त्रेऽधिकारोऽस्मिञ् ज्ञेयो नान्यस्य कस्य चित् । । 2/16
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जन्म से मरण पर्यनत जिसका संस्कार मन्त्र से होता है अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीनों वर्णों का अधिकार इस शास्त्र में जानना और किसी का अधिकार न जानना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।१३५/२।१६वां श्लोक निम्न आधार पर प्रक्षिप्त है - यह श्लोक पूर्वापर - प्रकरण से विरूद्ध है । प्रकरण धर्म के लक्षण तथा धर्म के विवेचन का चल रहा है । १।१३६-१३७ में १।१३२-१३४ में कहे धर्म लक्षण सदाचार की व्याख्या में ब्रह्मावत्र्त या आर्यावत्र्त की सीमा का निर्धारण करके सदाचार का स्वरूप बताया गया है । इनके बीच में इस शास्त्र में अधिकार - अनधिकार की चर्चा अप्राकरणिक होने से असंगत है । यदि यह श्लोक मौलिक होता, तो इसका स्थान ग्रन्थ के अन्त में अथवा प्रारम्भ में होना चाहिये था । और इस श्लोक में ‘शास्त्र’ शब्द का प्रयोग भी इसे परवत्र्तीही सिद्ध कर रहा है । क्यों कि मनुस्मृति के लिये शास्त्र शब्द का प्रयोग अर्वाचीन है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(निषेक-आदि-श्मशानान्तः) गर्भाधान से लेकर शरीरान्त संस्कार तक (मंत्रैः) वेद मंत्रों से (यस्य उदितः विधिः) जिसका संस्कार कहा गया है। (तस्य) उसका (शास्त्रेऽधिकारः अस्मिन् ज्ञेयः) उसका इस शास्त्र में अधिकार जानना चाहिये (न अन्यस्य कस्यचित्) किसी दूसरे का नहीं।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यनत की संस्कार-विधि जिस द्विज के लिए वेदमन्त्रों ने वर्णित की है, उसी का इस वेदशास्त्र पर अधिकार, अर्थात् इसे समझने का सामर्थ्य, समझना चाहिए; अन्य किसी असंस्कृत अपवित्रात्मा का नहीं। अतः, अर्थकाम में आसक्त न होकर धर्मज्ञान की प्राप्ति के लिए गर्भधानादि संस्कारों से संतानो को पवित्रात्मा बनाना भी नितान्त आवश्यक है।१
 
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