Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पूर्व जन्म के पाप से व इस जन्म के पाप से हाथी, घोड़ा, धनादि नष्ट हो जाने के समय दूसरे राजा पर चढ़ाई न करे चाहे धन, हाथी, घोड़ा आदि सामग्री अपने पास उपस्थित हों, तथा जाने में मित्र की रक्षा नहीं हो सकती हो तो उसके हेतु न जाना चाहिये यह दो ¬प्रकार का विश्राम है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
स्वयं किसी प्रकार क्रम से क्षीण हो जाये अर्थात् निर्बल हो जाये अथवा मित्र के रोकने से अपने स्थान में बैठे रहना यह दो प्रकार का आसन कहाता है ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्रमशः निर्बल हो जाने से अथवा अकस्मात् एकदम पूर्वकृत दुष्टकर्मों के फलरूप में क्षीण हो जाने से तटस्थ रहना, तथ स्वयं समर्थ होने पर भी मित्र के अनुरोध से उसके लाभार्थ चुप बैठे रहना, यह दो प्रकार का आसन माना गया है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
आसन (उपेक्षा ) दो प्रकार का है । क्रमशः दैवयोग से हीनता देखकर उपेक्षा करना या मित्र के अनुरोध से ।