Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यदृच्छया ।संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानं उच्यते ।।7/165

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आवश्यक कार्य-प्राप्ति के समय स्वेच्छा से शत्रु पर चढ़ाई करना यह प्रथम चढ़ाई हुई, तथा मित्र के सहायतार्थ चढ़ाई करना यह दूसरी चढ़ाई हुई।
टिप्पणी :
धर्मशास्त्र में आवश्यक से यह तात्पर्य है कि जब दूसरा राजा प्रजा को कष्ट दे तथा उनको स्पष्ट करना चाहे तब अपनी प्रजा के धर्म आदि की रक्षा करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अकस्मात् कोई कार्य प्राप्त होने में एकाकी वा मित्र के साथ मिल के शत्रु की ओर जाना (चढ़ाई करना) यह दो प्रकार का गमन (यान) कहाता है । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
शनु के किसी आकस्मिक संकट में फंसने पर जानबूझकर उस पर अकेले चढ़ाई करना, अथवा स्वयं असमर्थ होने पर किसी मित्र से मिल कर धावा बोलना, यह दो प्रकार का यान कहलाता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यान (चढाई) दो प्रकार का है। एक तो स्वयं अकेला दूसरा मित्रों के साथ ।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS