Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
समय पर व असमय पर अपनी इच्छा से बिगाड़ करना यह प्रथम विग्रह हुआ, तथा मित्र का अपमान देख अपमानकत्र्ता से विग्रह करना यह द्वितीय विग्रह हुआ।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
‘‘कार्यसिद्धि के लिए उचित समय या अनुचित समय में स्वयं किया वा मित्र के अपराध करने वाले शत्रु के साथ विरोध दो प्रकार से करना चाहिए ।’’
(स० प्र० षष्ठ समु०)
टिप्पणी :
विग्रह दो प्रकार का होता है- चाहे युद्ध के लिए निश्चित किये समय में अथवा अनिश्चित किसी भी समय में १. कार्य की सिद्धि के लिए स्वयं किया गया विग्रह और किसी के द्वारा मित्रराजा पर आक्रमण या हानि पहुंचाने पर मित्रराजा की रक्षा के लिए किया गया विग्रह ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
किसी कार्य की सिद्धि के लिए उचित व अनुचित काल में स्वयमेव शत्रु से युद्ध छेड़ना, स्वयंकृत विग्रह है। और, अपने मित्र को अपकार किये जाने पर उसकी रक्षार्थ युद्ध छेड़ना मित्रापकृत विग्रह है। एवं, यह दो प्रकार का विग्रह माना गया है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
विग्रह (लडाई) भी दो प्रकार का है । एक तो अपने कार्य के लिये किया जाता है और एक अपने मित्र का अहित देखकर किया जाता है।